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वेश्या
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नीचे पांच रुपये से चवन्नी तक के टिकट की दर थी।

अभिनय के समय पर भीड़ का पार न था। चवन्नी की खिड़की पर आदमी पर आदमी टूट रहे थे। थिएटर-हॉल खचाखच भर रहा था। क्षण-क्षण में तालियों की गड़गड़ाहट के मारे कान के पर्दे फटे जाते थे। लोग तरह-तरह का शोर कर रहे थे।

एकाएक सैकड़ों बत्तियों का प्रकाश जगमगा उठा और वह पुराना सौन्दर्य नये वस्त्रों में सजकर सम्मुख आया। वह स्त्री-जो राजपरिवार की महारानी का पद भोग चुकी थी जिसे सभी सम्पदाएं तुच्छ थीं, आज अपने सौन्दर्य को इस तरह खड़ी होकर चवन्नी वालों को बिखेर रही थी। देखने वाले दहल रहे थे। धीरे-धीरे उसने गाना शुरू किया-साज़िन्दों ने गत मिलाई। चवन्नीवालों ने शोर किया-ज़रा नाचकर बताना, बी साहेब!

शोर बढ़ता गया। क्षोभ, ग्लानि और लज्जा से गुलबदन बैठ गई। एक सहृदय पुरुष ने सिर हिलाकर कहा-हाय री वेश्या!!-और वे बाहर निकल आए! वे दूर तक कुछ सोचते और रंगमंच का शोर सुनते अंधकार में वेश्या' के व्यक्तित्व पर विचार करते चले जा रहे थे। पृथ्वी पर कौन इस तरह इस शब्द पर कभी विचार करने का ऐसा अवसर पाएगा?