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पृष्ठ:कहानी खत्म हो गई.djvu/८८

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भाई की विदाई
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दारोगाजी, यही जगह ठीक है, यही हम लोगों को ठहरकर देखना चाहिए कि क्या होता है।

'यह क्यों ? मैं तो मौके पर रहूंगा।'

'हुजूर, आपके बाल--बच्चे हैं, आप नौजवान हैं, नौकरी में पेट भरने जितनी तनखा मिलती है, जान देने जितनी नहीं, आप पहली बार मुहिम पर पाए हैं, वे लोग पक्के खिलाड़ी हैं। आप मतलब से मतलब रखिए वरना यहां से जीता-जागता लौटना मुश्किल है।'

सन्ध्या हो रही थी, दारोगाजी और कान्स्टेविल सभी ने कमालुद्दीन की बात सुनी, सब सन्न हो गए। दारोगाजी का धीरज भी भागने लगा और जोश भी ठण्डा पड़ गया। उन्होंने सोचा, चिड़िया का शिकार करना और डाकू से लड़ना एक ही बात नहीं है । उन्होंने कहा-तब तुम्हारी क्या राय है ?

'यहीं चुपचाप बैठिए।'

'इसके बाद?'

'वे लोग शर्तिया यहीं से होकर गुज़रेंगे। आप पेड़ पर चढ़ जाइए और जो कुछ नज़र आए देखते रहिए। हम लोग पुलिया में छिपे बैठे रहेंगे।'

'इससे फायदा?'

'कार सरकार भी होगा और जान-जोखिम न होगी।'

'मगर लुद्दीन, वे लोग शायद आएंगे ही नहीं।'

'हुजूर, वे ज़रूर आएंगे, इस मनहूस बनिये को लूटेंगे भी, और हम लोग कुछ न कर सकेंगे।'

दारोगाजी वहीं बैठ गए। डाकू पकड़ने का उत्साह अब बहुत कम रह गया था। उन्हें सलामती से वापस जाने ही में भलाई दीखती थी। कमालुद्दीन ने कहा-हुजूर, ये वारदातें तो रोज़ के धन्धे हैं, क्या हम लोगों के सिर गाजर-मूली हैं कि उन्हें हथेली पर लिए फिरें। हां, जाप्ते की कार्रवाई होनी चाहिए। दारोगाजी ने सिपाहियों से कहा--क्यों भाइयो, तुम्हारी क्या राय है ?

'हुजूर, कमालुद्दीन ठीक कहता है, यहां जान किसे भारू है। हां, जाप्ते की कार्रवाई होनी चाहिए।

दारोगाजी ने घबराकर कहा--जाप्ते की कार्रवाई किस तरह होगी कमालुद्दीन ?