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भाई की बिदाई
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'किया'--बालिका रोने लगी। पिस्तौल उसके हाथ से छूट गई। युवक ने उसका आंचल आंखों से लगाया और कहा :

'बहिन, अपने भाई को कुछ आज्ञा करो।'

बालिका चुप रही। युवक ने कहा--अगर तुम्हारी इच्छा नहीं तो हम यह धन नहीं ले जाएंगे। कहो क्या कहती हो ?--बालिका कुछ न बोली।

युवक कुछ देर बालिका की ओर देखता रहा फिर वहां से तेज़ी से बाहर पा गया । बाहर लूट का सामान इकट्ठा था, सव डाकू चुपचाप नायक की प्रतीक्षा में खड़े थे। नायक ने अधिकारसम्पन्न स्वर में कहा-यहां से एक पाई भी नहीं ले जाई जाएगी। तुम लोग बाहर चले जाओ। वहां, उस कमरे में तुम्हारे साथी का शव पड़ा है, उसे भी ले जाना होगा।

शव को लेकर डाकू लौटने लगे। सबके पीछे नायक नीचा सिर किए जा रहा था। पीछे से किसीने मृदु स्वर से पुकारा-ठहरो।

युवक ने रुककर देखा–बालिका है। वह लौटकर उसके सम्मुख खड़ा हो गया। उसने तीखे स्वर में कहा :

'क्या कहती हो?'

'लौटे क्यों जा रहे हो ?'

'यह हमारी मर्जी है।'

'यह सब ले क्यों नहीं जाते ?' .

'यह भी हमारी मर्जी है।'

'क्या नाराज़ हो गए ?' बालिका रो उठी। नायक की आंखें भीग गईं।

उसने कहा-तुम्हारा क्रोध भाई के ऊपर से नहीं गया, उस भाई के ऊपर से जिसने जीवन और मृत्यु तक साथ देनेवाले साथी को पागल कुत्ते की भांति मार डाला--सिर्फ बहिन का अपमान करने के कारण, और जिसने उस पाप को अपने हृदय पर ग्रहण कर क्षमा मांगी। तुम लोग हमारी अज्ञात वहिनें हो, जो उन साहसी भाइयों के दुःख को नहीं जानती हो, जिनके हृदय धांय-धांय जल रहे हैं और जिन्होंने जवानी की सारी वासनाएं त्यागकर संन्यास ले लिया है, जो फांसी की रस्सियां गले में डाले मृत्यु को ढूंढ़ते फिरते हैं। जिन्होंने मृत्यु को वरा है, और जिनसे अपनी लाखों बहिनों का नंगा-भूखा रहना नहीं देखा जाता। तुम लोग उनसे सहानु- भूति तक नहीं रख सकतीं ! तुम्हारे छोटे-से घर की चहारदीवारी ही तुम्हारे जीवन