पृष्ठ:कहानी खत्म हो गई.djvu/९९

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अभाव

यह कहानी सन् १९२८ में लिखी गई थी जबकि लाला लाजपत राय का बलिदान हुआ था। कहानी में एक ओर देश की तात्कालिक अवस्था की झलक मिलती है, दूसरी ओर पंजाबकेसरी के उज्ज्वल चरित्र की झांकी।

प्रशान्त तारकहीन रात्रि का गहरा अंधकार पृथ्वी पर छा रहा था। अमृतसर की प्रशस्त सड़कों पर मनुष्य का नाम न था। उसके दोनों पाश्वों पर जलती हुई लालटेनों के खम्भे निस्तब्ध खड़े बहुत अशुभ मालूम हो रहे थे। जिन मकानों की खिड़कियों में नित्य दीपमालिका जगमगाती थी, उनमें भी गहरा अन्धकार छा रहा था। एक विशाल अट्टालिका में एक युवक बैठे अन्धकार में दूर तक आकाश की ओर देख रहे थे। वे उस अभेद्य अन्धकार में मानो कुछ देख रहे थे। उनका मन उन्हें सुदूर फ्रांस के युद्धक्षेत्र में ले उड़ा था-चारों तरफ प्रचंड युद्ध की ज्वाला, तोपों का गर्जन, जहरीली गैसों की सरसराहट, पाहतों की चीत्कार, बम-प्रपात का हाहाकार! मानो वे उस शून्य आकाश में जागरित-से देख रहे थे। उन्हें सहस्रों मरणोन्मुख व्यक्तियों में से सहसा एक अद्भत मुख की आलोकित आभा दीख पड़ी, जो लाशों के ढेर में से सहायता के लिए संकेत कर रहा था। किस प्रकार प्राणों पर खेलकर वे उसकी सहायता को अग्रसर हुए थे, और किस प्रकार उस मुख के वीर स्वामी को उत्कृष्ट वीरता के उपलक्ष्य में विक्टोरिया क्रॉस मिला था-डेढ़ वर्ष पूर्व का वह चित्र उनकी आंखों में घूम गया। वे एक हाय कर उठे, हाय! वही वीर पुरुष, वही सिंह-नर, वही युवा, सुन्दर युवा, जो कल मेरे साथ भोजन कर गए थे, अभी-अभी कुछ घंटे प्रथम हंस रहे थे, जलियानवाला बाग में मुर्दा पड़े हैं! वह उनका एकमात्र ढाई वर्ष का शिशु भी वहीं लहू-लुहान पड़ा है। उनकी लाश उठाने का इस समय कोई प्रबन्ध नहीं। प्रोफ! हत्यारे डायर! युवक सिसकियां लेकर रोने लगे-रोते-रोते ही धरती पर लोट गए।