गोपाल कृष्ण गोखले। १०५ बम्बई विश्वविद्यालय में एक श्रेष्ठ कालिज समझा जाता है। गोसले के समान त्यागी, विद्याव्यसनी लोग ही इस कालिज में अल्प वेतन लेकर अध्यापक का काम करते हैं। गोखले महोदय को यहां केवल सत्तर रुपया मासिक निर्वाह के लिए मिलता था। इतना ही धन पाकर आप वहां अधिक प्रसन्न थे। आपके बड़े भाई की इच्छा थी कि भाप कोई ऐसा कार्य करें जिसमें अधिक धन पैदा किया जा सके। आपके भाई ने ग़रीबी के दिन देखे थे। बाल्यावस्था में ही पिता के परलोक घास हो जाने से गृहस्थी का सारा बोझ, उनके सर पड़ गया था । बहुत दिनों तक, वे इस बोझ को इस माशा से संभाले रहे कि, छोटे भाई के विद्वान हो जाने पर फिर तो अधिक धन प्राप्त हो सकेगा और जीवन आनन्द से व्यतीत होगा। परन्तु छोटे भाई ने लिख पढ़ पार-विद्वान होकर- आत्मत्याग करने का निश्चय किया। स्वल्प वेतन लेपार ही, देश सेवा करने का व्रत ग्रहण किया। यही देख कर उन्हें दुःख हुना। परन्तु गोसले महोदय की माता विदुषी थीं। उनका विचार था कि यदि हमारा पुत्व स्वार्थ त्या स्वार्थ त्याग करेगा तो अवश्य उसकी अधिक कीर्ति संसार में फैलेगी । संसार का वैभय अनित्य है, धन आता है और चला जाता है। धन और वैभव का पाना तो सरल है परन्तु कीर्ति लाभ करना सरल नहीं है। अतएव उन्होंने अपने प्रिय पुत्र को स्वार्थ त्याग करने की आनन्द पूर्वक शाज्ञा दे दी। माता की आज्ञा पाकर गोखले महोदय, आनन्द के साथ अध्यापक का कार्य करने लगे और देश का कार्य करने के लिए अध्यपन और अनुभव द्वारा, अपने में देशानुराग की मात्रा को दिनों दिन बढ़ाने लगे। दक्षिण में, बहुत से विद्वान लोगों ने मिल कर एक समिति स्थापित की है। उसका नाम है Deccan Educational Society; गोखले महोदय भी इस के सभासद हैं। जिस समय गोसले महोदय ने फग्र्युसन कालिज में, शिक्षक का कार्य करना प्रारम्भ किया उस समय उनकी इच्छा यह न पी कि हम अपना सारा जीवन बालकों को पढ़ने में ही व्यतीत करें । उनको इस बात की प्रवल उत्कंठा थी कि हम अपना जीवन देशोपकार के कार्य
पृष्ठ:कांग्रेस-चरितावली.djvu/१२३
दिखावट