(१२) कांग्रेस-चरितावली। - सन् १८६२ में, पण्डित जी ने कालिज छोड़ा। उस समय संयुक्त प्रान्त की राजधानी नागरा थी। और इसी कारण हाईकोर्ट की कचहरी भी मागरे में ही थी। पण्डित जी ने सागरे से ही हाईकोर्ट में वकालत करना शुरू किया । सब से पहला कान जो पंडित जी ने देश हित का किया वह 'विकृोरिया कालिज, की स्यापना थी। इस . काम में अपने बहुत परिश्रम किया था। जब संयुक्त प्रान्त की राजधानी मागरे से उठ कर प्रयाग गई तय पंडित जी भी प्रागरे से प्रयाग चले गए और अन्त तक वहीं रह। सन् १८६८ में, नागरा कालेज में ला प्रोफेसर की जगह खाली हुई। बहुत से लायक़ लोगों ने इस जगह को पाने के लिए दरखास्त दी । परन्तु सरकार ने पंडित जी को कानून कायदे का उत्कृष्ट ज्ञाता जानकर इस जगह पर पंडित जी को नियत करके अपने न्याय का परिचय दिया । प्रयाग जाने पर पंडित जी को वकालत से खूयं अच्छी आमदनी होने लगी। धन प्राप्त होने पर बहुधा मनुष्य अपने कर्तव्य कर्म को भूल जाते हैं । वे धन के मद से मतवाले हो कर दूसरों के सुख दुःख की ओर बिलकुल ध्यान नहीं देते। विद्या से भी उनकी रुचि जाती रहती है। परन्तु धन पाकर पंडित जी ने अपने कर्तव्य कर्म और परोपकार व्रत को परित्याग नहीं किया। वे अपना वकालत का काम करके देशहित, समाज हित इत्यादि परोपकार के अनेक काम करते थे और अंगरेजी, फारसी, अरबी, की पुस्तकें पढ़ कर अपने ज्ञान भाण्डार को भी बढ़ाया करते थे। सन् १८७८ में, आपने "इण्डियन हेरल्ह" नामक एक अंगरेज़ी दैनिक पत्र निकाला; जो तीन वर्ष तक बरायर चलता रहा। परन्तु इस पत्र को जैसी चाहिए यैसी सहायता लोगों से नहीं मिली। इस कारण सन् १८८२ में, यह बन्द हो गया ! परन्तु पंडित जी को बिना एक दूसरा पत्र चलाए फल न पड़ी। उन्होंने सन् १८९० में, एक दूसरा पत्र “इण्डियन यूनियन निकाला। इस पत्र को, सोत्तम बनाने के लिए पंडित जी ने बहुत ही परिश्रम किया। संयुक्त प्रान्त की लेजिसलेटिव कौंसिल के पंडित जी मभासद थे। फलफत्ता और इलाहायाद इन दोनों यूनिवर्सिटियों के भी
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