सामग्री पर जाएँ

पृष्ठ:कांग्रेस-चरितावली.djvu/१५९

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

पंडित अयोध्या नाय । (१३) वे फेलो घे। परिहंत जी ने इन दोनों स्थानों पर बड़ी योग्यता से काम किया । पण्डित जी ने सय मे उत्तम काम अपने जीवन में यह किया कि अपना तन, मन, धन, "राष्ट्रीय समा" की उम्पति करने में लगा दिया। सुनते हैं कि जिम प्रकार इटली के प्रसिद्ध देशभक्त मज़ीनी को रोम के 'ऊपर मेम था चैमाही पगिष्ठत जी को अपने देश के ऊपर पूर्ण भक्ति थी। यदि इस समय पगिहत जी सरीरो सच्चे दस यीस प्रादमी नेशनल- कांग्रेस के नेता निकारा भायें तो देश का बहुत कुछ फल्याण हो सकता है। और राष्ट्रीय-मभा का स्वरूप बहुत कुछ बदल सकता है । सन् १८८५ में, जो पहली राष्ट्रीय-सभा यम्बई में हुई थी उसमें पण्डित जी नहीं गए थे और न दूसरी सभा 'जो कलकत्ते में हुई थी उसमें परिष्ठतजी मौजूद थे। तीसरी सभा जो मदरास में हुई थी उस में पण्डित जी नहीं शामिल हो सके थे; परन्तु चौथी यार जय संयुक्त मान्त में सभा करने की बारी आई तय पण्डित जी ने सब से आगे हो कर वह काम करके दिखलाया जिसे देख सब लोगों को यहा ही श्राश्चर्य हुआ ! चारों ओर पण्डित जी की याह वाह होने लगी । इस समय पर ये स्वागत कमेटी के सभापति थे । पहिले ही दिन, सभा का काम प्रारम्भ होने पर; जो व्याख्यान परिहत' जी ने दिया यह बहुत ही उत्तम था। उसे सुन कर लोगों के हृदय पर बहुत अच्छा असर पड़ा । पण्डित जी की ही कृपा से इस राष्ट्रीय-सभा का परिचय विलायत वालों को हुमा । देशी और विदेशी विद्वानों को इसी दिन से इस ममा के साथ सहानुभूति पैदा हुई। हमारी समझ से तो यह कहने में भी कुछ हानि नहीं है कि इस सभा को "राष्ट्रीय-सभा" इस प्रकार सम्बोधन करने अथवा बतलाने का सौभाग्य उसी दिन से प्राप्त जिस दिन से परिष्ठत अयोध्या नाथ इस में शामिल हुए। जब-से पण्डित जी इस सभा में शामिल हुए तय ही से इस सभा की दिनों दिन उन्नति होती गई ! सन् १८८८ में, राष्ट्रीय-समा की चौथी बैठक प्रयाग में हुई। इस समय वहे घड़े अधिकारियों ने अनेक प्रकार के विघ्न हाले। परन्तु पण्डित जी ने किसी आत की परवाह न करके निस्पृहता, साहस, दीर्घोद्योग,