दादा भाई नौरोजी । १७ "बम्बे म्युनिसिपल कारपोरेशन" और "टाउन कौंसल" ने भाप को अपना सभासद बनाया। इसी साल आपने "भारत की दरिद्रता" पर बहुत ही अच्छे दो लेख प्रकाशित किए। ये दोनों लेस भारतवासियों के मनन करने योग्य हैं। दादाभाई में अनेक उत्तम गुणा हैं। गुणियों का आदर विना हुए नहीं रहता । अतएव बिना मांगे ही आप को अनेक बड़े बड़े सन्मान सूचफ पद पर बैठे ही मिल गए । सन् १८५५ में आप को ग्रेण्ड जूरी . फा सभासद बनाया गया, सन् १८६४ में बम्बई यूनिवर्सिटी ने भी आपको अपना सभासद बनाया । सन् १८८३ में सरकार ने भापको "जस्टिस माफ़ दी पीस" का खिताब दिया । और सन् १८८५ में भापको बम्बई के गया नरलाई रेने अपनी कौंसिल का सभासद नियत किया। जिस समय सरकार ने श्रापको कौंसिल का मेम्बर बनाया उस समय देश के मजाहितवादी सारे समाचार पत्रों ने बड़ा आनन्द प्रगट किया था। एक गुजराती पन ने इस प्रकार लिसाथा कि "पूर्व कालीन शिक्षक मिस्टर दादाभाई एतद्देशियों के सिर मौर हैं। यदि वे अपनी सम्मति स्वतंत्रता को त्याग देते तो आज कल आप किसी सरकारी बड़े ओहदे पर विराजमान होते अथवा पेन्शन पाकर मानन्द से घर बैठते । परन्तु उन्हें स्वहित साधन की अपेक्षा स्वदेश हित करना ही उचित जान पया । उन्होंने स्वहित का त्याग करको अपना ध्यान देश सेवा की पोर रक्ला । पर न तो नसीब ने ही इन के ऊपर कुछ कृपा की और न सरकार ने ही इन के गुणों का आदर करना स्वीकार किया। सच है, सरकारी अधिकारियों को दादाभाई सरीखे प्रमूल्य रत्नों की कीमत ही क्या मालूम ! परन्तु जो सच मुच अपने देश हित की इच्छा रखता है उसे सरकारी मान की परवाह भी नहीं होती। यह बड़ी खुशी की बात है कि इस समय लाई साहब ने दादा भाई, तेलंग, बदरुद्दीन और रानडे, इत्यादि कई एक देशी योग्य पुरुषों को एकत्रित किया है"। भारत के कल्याण के हित, सन् १८८५ में, नेशनल कांग्रेस की स्थापना बम्बई में करने के लिए सब से अधिक उद्योग श्राप ने ही किया। कांग्रेस का बीजारोपण करने में अग्रेसर आप ही थे । -- ..
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