गाजर पाठरी 15 आफ्त के समय म मेरे लडवे हरन दन ना ऐमा परना बड़े शम की बात होगी, हर एक छोटा-चडा बदनाम करेगा और समषियाने में तो यह बात न मालूम किम रूप से फ्ल पर कसा रूप सडा परेगी मो कह नहीं मक्ते। मूरज० बात तो ऐमी ही है मगर फिर भी मैं यही कहता हूँ कि हरनदन ऐसा लडना नहीं है। उसे अपनी बदनामी का ध्यान उतना ही रहता है जितना जुआरी को अपना नाव पडने का उस समय जब कि वोडी रिसी खिलाडी हाप से गिरा ही चाहती हो। इतन ही में हरादनगो साथ लिए हुए रामसिंह भी मा पहुंचा जिस दसते ही कल्याण सिंह न पूछा, "क्योजी रामसिंह । हरन दन से कहा मुलाकात हुई?" रामसिंह बांदी रडी के डेरे में। कल्याण. (चौक पर) है । (हरनदन से) क्यो जी तुम, कहा थे? हरन दन चांदी रडीने डेरे में । इतना गुनने ही पल्याणसिह की आखें मारे क्रोध से लाल हो गई और मह स एव शब्द भी निक्लना कठिन हो गया। उधर यही हाल सूरजसिंह का भी था । एक तो दुःख और माघ । उन्ह पहिने ही से दया रवखा था मगर इस समय हरन दन की ढिठाई ने उहे आपे से बाहर कर दिया। ये कुछ रहना ही चाहते थे विरामसिह ने पहा- रामसिंह (पल्याणसिंह से) मगर हमारे मित्र इस योग्य नहीं हैं कि आपको कभी अपने ऊपर क्रोधित होन का समय दें। यद्यपि अभी तक मुसे कुछ मालूम नहीं हुआ है तथापि मैं इतना कह सकता हूं कि इनके ऐसा परने का याई-न-कोई भारी सबब जरूर होगा। हग्नदन बेशक ऐसा ही है । कल्याण. (आश्चय से) बेश ऐसा ही है हरनदन जीहां- इतना कह हरन दन ने यागज का एक पुर्जा जो बहुत मुरा और विगडा हुआ था उनके सामने रख दिया। कल्याणसिंह ने बडी बचनी से उस उठा पर पका और तब यह रह कर अपने मित्र सूरजसिंह के हाथ में दे दिया
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