काजर की कोठरी 43 गुमान भी किसी को नहीं हो सकता था कि सूरजसिंह लालसिह के पास आवेंगे, दूसरे जब मूरजसिंह के साथ लालमिह बाहर चले गए तव पारम- नाथ को इस बात की खबर लगी। शंतानी का जाल फैलाने वाला हरदम चौक नाही रहा करता है, अस्तु पारमनाथ का भी वही हाल था। खबर पाते ही वह लालसिंह गे तरफ गया मगर कमरे के दर्वाजे पर पहुचते ही उसने सुना कि 'लालसिंह किसी के साथ कही वाहर गए है ।' याडी देर तक उनके आने का इतजार किया, जब वे न आए तो लोट कर अपन स्थान पर चला गया मगर इस पात का प्रवध करता गया कि जब लालसिंह लौट वर आव ता उस राबर मिल जाय। तरह-तरह के सराच जोर विचारान उसकी आखा म नाद का मन न दिया और वह तीन पहर रात जान तक भी अपनी नारगड पर करवट बदलता रहा। इस बीच म लालसिंह व लौट आन की भी उसे इनिला न मिली, जिसस उसके दिल का सुटका भी और बढता ही गया। आखिर तरददुदो और फिका स हाथापाई करती हुई निद्रा न उसकी आखा म अपना दसल जमा लिया और वह तीन चार घण्टे भर के लिए खवर सो गया । जब उसकी आस खुली ना दिन कुछ ज्याने चह चुका था। आख खुलने के साथ ही वह घबटा कर उठ बैठा और धीर-धीर यह बुदबुदाता हुआ अपनी काठरी के बाहर निक्ला, जाफ बडी देर हो गयी चाचा साहब कभी के आ गए होगे । ' उसी ममय उसके नबर ने सामन पडकर उस इत्तिला दी, गर्वार (नासिंह) वरामदम वैठे तम्बार पी रहे हैं।' जल्दी जल्दी हाय-मुह धोवर वह लालामह की तरफ रवाना हुआ और जब उनके बरामदे में पहुचा ता उहे कुर्सी पर बैठे तम्बाकू पीत देखा । अदब के माय युद्ध कर मलाम करने के पान एक किनारे गडाग गया। लासिंह की कुर्सी के पास ही एक छाटी सी चौकी विछी -ई थी जिम पर इशारा पाकर पारसनाथ बैठ गया और यह बातचीत होन लगी- गत का नुम कहा च 1 गए थे ? जब मन नुमको बुलाय नान
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