72 जरी कारी मे रोनी सूरत बना कर अफसोस करन लगा और दम-बीम बंद आम की गिरा कर उस चिट्ठी लाने वाले से यो बोला- पारस० तुम्हारा नाम क्या है ? आदमी लोवनाया पारस० मकान रहा है? लोकनाथ याशीजी। पारस० हमारे चाचा साहय न तुम्हार मामन हो सन्यास लिया या। 7 लाक० जी हा, उस समय जो कुछ उनके पास था, दो सौ रुपये मुये कर बाकी सब दान कर दिया और यह चिट्ठी जो पहिले निस रखसी थी दकर कहा कि यह चिट्ठी मेरे भतीजे पारसनाथ के पास पहुचा देना और जो दो सौ रुपये हमन तुम्ह दिये हैं उसे इसी को मजूरी समझना।' दूसरे दिन जब वे दण्ड मण्डल लिए हरिद्वार की तरफ गये तब मैं भी मिरामै के इस पर सवार होकर इस तरफ रवाना हुआ। पारम० अपमोम । न मालूम चाचा माह्व को यह पया सूनी उनका अगर पता मालूम हो तो मैं उनके पास जरूर जाऊ और जिस तरह हो घर लिग लाऊ । अगर सन्यास ले लिया है तो क्या हुआ, अलग बैठ रहगे हम लोगा को आज्ञा दिया करेंगे। उनये सामने रहने ही स हम लागो का आसरा बना रहेगा। लोक एक ता अब उनका पता लगाना ही कठिन है दुसर वह ऐस कच्चे सयासी नही हुए हैं जो किसी के समझाने-बुझाने से पर लोट आवेंगे। अब आप लोग उनका ध्यान छोड दें और घर-गृहस्थी के पधे में लगें। पारम० तो क्या अब हम लोग उनको- तरफ से बिलकुल निराश हो जाए? लोक. नि मा देह ! अच्छा अब मुझे विदा कीजिए तो मैं अपन घर जाऊ1 पारस० नही नहीं अभी तुम बिदान किय जाआगे। अभी मैं हवेली म जाकर औरतों को यह सम्वाद सुनाऊगा, कदाचित चाची साहिबा को तुमसे कुछ पूछने की जरूरत पडे। इसके बाद उनकी आज्ञानुसार कुछ देवर
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