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अंक १, दृश्य १
सन्तोष―अरे, साल मे बहुत सार्वजनिक काम आ पड़ते हैं, तो उनके लिए संग्रहालय में भी तो रखना चाहिये।
विनोद—हाँ जी, ठीक कहा ।
(समुद्र की ओर देखता है)
सन्तोष—क्यो जी, इसके उस पार क्या है ?
विनोद—यही नहीं समझ में आता कि वह पार है या नहीं।
सन्तोष—ओह । जहाँ तक देखता हूँ, अखंड जलराशि है।
विनोद—क्या कभी इसमे चलकर देखने की इच्छा होती है।
सन्तोष—इच्छा तो होती है, पर लौटकर न आने के संदेह से साहस नहीं बढ़ता। ये हरे-भरे खेत, छोटी-छोटी पहाड़ियों से ढुलकते―मचलते हुए झरने, फूलों से लदे हुए वृक्षों की पंक्ति, भोली गउओं और उनके प्यारे बच्चों के झुंड, इस बीहड़ पागल और कुछ न समझने वाले उन्मत्त समुद्र में कहाँ मिलेगे। ऐसी
धवल धूप, ऐसी तारों से जगमगाती रात वहाँ होगी?
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