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पृष्ठ:कामना.djvu/६७

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कामना

विलास—( देखकर ) कौन ? संतोष | तुम क्या जानोगे ? भावुकता और कल्पना ही मनुष्य को कला की ओर प्रेरित करती है। इसी मे उसके कल्याण का रहस्य है, पूर्णता है।

संतोष—विलास । तुम्हारे असंख्य साधन है। तब भी कहाँ तक? संसार की अनादि काल से की गई कल्पनाओ ने जंगल को जटिल बना दिया, भावुकता गले का हार हो गई, कितनी कविताओं के पुराने पत्र पतझड़ के पवन मे कहाँ-के-कहाँ उड़ गये । तिस पर भी संसार मे असंख्य मूक कविताये हुई । इसका कौन अनुमान कर सकता है ? चन्द्र- सूर्य की किरणो की तूलिका से अनन्त आकाश के उज्वल पट पर बहुत-से नेत्रो ने दीप्तिमान रेखा-चित्र बनाये, परन्तु उनका चिन्ह भी नहीं है। जिनके कोमल कंठ पर गला दे देना साधारण बात थी, उन्होंने तीसरी सप्तक की कितनी मर्मभेदी तानें लगाई; किन्तु वे सर्वग्रासी आकाश के खोखले मे विलीन होती गई।

(संतोष जाता है, कामना का प्रवेश)

कामना—(विलास को देख कर स्वगत) जैसे खिले हुए ऊँचे कदम्ब पर वर्षा के यौवन का एक सुनील

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