पृष्ठ:कामायनी.djvu/१०२

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नव कोमल अवलंब साथ में वय किशोर उँगली पकड़े ,
चला आ रहा मौन धैर्य-सा अपनी माता को जकड़े ।
थके हुए थे दुखी बटोही वे दोनों ही माँ-बेटे ,
खोज रहे थे भूले मनु को जो घायल हो कर लेटे ।

इड़ा आज कुछ द्रवित हो रही दुखियों को देखा उसने ,
पहुँची पास और फिर पूछा 'तुमको बिसराया किसने ?
इस रजनी में कहाँ भटकती जाओगी तुम बोलो तो ,
बैठो आज अधिक चंचल हूँ व्यथागाँठ निज खोलो तो ।

जीवन की लंबी यात्रा में खोये भी हैं मिल जाते ,
जीवन है तो कभी मिलन है कट जाती दु:ख की रातें ।"
श्रद्धा रुकी कुमार श्रांत था मिलता है विश्राम यहीं ,
चली इड़ा के साथ जहाँ पर वह्नि शिखा प्रज्वलित रही ।

सहसा धधकी वेदी ज्वाला मंडप आलोकित करती ,
कामायनी देख पायी कुछ पहुँची उस तक डग भरती ।
और वही मनु ! घायल सचमुच तो क्या सच्चा स्वप्न रहा ?
आह! प्राणप्रिय ! यह क्या ? तुम यों ! घुला हृदय, बन नीर बहा ।

इड़ा चकित, श्रद्धा आ बैठी वह थी मनु को सहलाती ,
अनुलेपन-सा मधुर स्पर्श था व्यथा भला क्यों रह जाती ?
उस मूर्च्छित नीरवता में कुछ हल्के-से स्पंदन आये ,
आँखें खुलीं चार कोनों में चार बिंदु आकर छाये ।

उधर कुमार देखता ऊँचे मंदिर, मंडप, बेदी को,
यह सब क्या है नया मनोहर कैसे ये लगते जी को ?
माँ ने कहा--"अरे आ तू भी देख पिता हैं पड़े हुए",
"पिता ! आ गया लो" यह कहते उसके रोयें खड़े हुए ।

90 / कामायनी