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पृष्ठ:कामायनी.djvu/१०३

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"मां जल के, कुछ प्यासे होंगे क्या बैठी कर रही यहाँ ?"
मुखर हो गया सूना मंडप यह सजीवता रही कहां ?
आत्मीयता घुली उस घर में छोटा-सा परिवार बना ,
छाया एक मधुर स्वर उस पर श्रद्धा का संगीत बना।

"तुमुल कोलाहल कलह में
मैं हृदय की बात रे मन !

विकल होकर नित्य चंचल ,
खोजती जब नींद के पल ,
चेतना थक-सी रही तब ,
मैं मलय की वात रे मन !

चिर-विषाद-विलीन मन की
इस व्यथा के तिमिर-वन की ;
मैं इस उषा-सी ज्योति-रेखा
कुसुम-विकसित प्रात रे मन !

जहाँ मरु-ज्वाला धधकती,
यातकी कन को तरसती
उन्हीं जीवन-घाटियों की,
में सरस बरसात रे मन !

पवन की प्राचीर में रुक
जला जीवन जी रहा झुक ,
इस झुलसते विश्वदिन की
मैं कुसुम-ऋतु-रात रे मन!

</poem>

कामायनी/ 91