पृष्ठ:कामायनी.djvu/११२

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मैं क्या दे सकती तुम्हें मोल ,
यह हृदय ! अरे दो मधुर बोल ,

मैं हँसती हूँ रो लेती हूँ ,
मैं पाती हूँ खो देती हूँ ,
इससे ले उसको देती हूँ ,
मैं दु:ख को सुख कर लेती हूँ ,

अनुराग भरी हूँ मधुर घोल ,
चिर-विस्मृति-सी हूँ रही डोल।

यह प्रभापूर्ण तब मुख निहार ,
मनु हत-वेतन से एक बार ,

नारी माया-ममता का बल ,
वह शक्तिमयी छाया शीतल ,
फिर कौन क्षमा कर दे निश्छल ,
जिससे यह धन्य बने भूतल ,

तुम क्षमा करोगी' यह विचार ,
मैं छोड़ूँ कैसे साधिकार ?"

"अब मैं रह सकती नहीं मौन ,
अपराधी किंतु यहाँ न कौन ?

सुख-दुःख जीवन में सब सहते ,
पर केवल सुख अपना कहते
अधिकार न सीमा में रहते ,
पावस - निर्भर - से वे बहते ,

रोके फिर उनको भला कौन ?
सबको वे कहते—शत्रु हो न !'

अग्रसर हो रही यहाँ फूट ,
सीमाएँ कृत्रिम रहीं टूट ,

100 / कामायनी