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पृष्ठ:कामायनी.djvu/११३

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श्रम-भाग वर्ग, बन गया जिन्हें ,
अपने बल का है गर्व उन्हें ,
नियमों की करनी सष्टि जिन्हें ।
विप्लव की करनी वृष्टि उन्हें ,

सब पिये मत्त लालसा घूँट ;
मेरा साहस अब गया छूट।

मैं जनपद-कल्याणी प्रसिद्ध ,
अब अवनति कारण हूँ निषिद्ध ,

मेरे सुविभाजन हुए विषम ,
टूटते, नित्य बन रहे नियम ,
नाना केंद्रों में जलधर-सम ,
घिर हट, बरसे ये उपलोपम ।

यह ज्वाला इतनी है समिद्ध ,
आाहुति बस चाह रही समृद्ध ।

तो क्या मैं भ्रम में थी नितांत ,
संहार-बध्य, असहाय दांत ,

प्राणी विनाश-मुख में अविरल ,
चुपचाप चलें होकर निर्बल !
संघर्ष कर्म का मिथ्या बल ,
ये शक्ति-चिह्न, ये यज्ञ विफल ,

भय की उपासना ! प्रणति भ्रांत !
अनुशासन की छाया अशांत !

तिस पर मैंने छीना सुहाग ,
हे देवि ! तुम्हारा दिव्य-राग ,

मैं आज अकिंचन पाती हूँ ,
अपने को नहीं सुहाती हूँ ,

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कामायनी / 101