पृष्ठ:कामायनी.djvu/१२२

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चेतन परमाणु अनंत बिखर ,
बनते विलीन होते क्षण भर !

यह विश्व झूलता महा दोल ,
परिवर्त्तन का पट रहा खोल ।

उस शक्ति-शरीरी का प्रकाश ,
सब शाप पाप का कर विनाश--

नर्त्तन में निरत, प्रकृति गल कर
उस कांति सिंधु में घुल-मिलकर ,
अपना स्वरूप धरती सुन्दर ,
कमनीय बना था भीषणतर

हीरक-गिरि पर विद्युत-विलास ,
उल्लसित महा हिम धवल हास ।

देखा मनु ने नर्त्तित नटेश ,
हत चेत पुकार उठे विशेष--

यह क्या ! श्रद्घे ! बस तू ले चल ,
उन चरणों तक, दे निज संबल ,
सब पाप-पुण्य जिसमें जलजल ,
पावन बन जाते हैं निर्मल ,

मिटते असत्य-से ज्ञान-लेश ,
समरस, अखंड, आनंद-वेश"!

110 / कामायनी