तम जलनिधि का बन मधुमथन,
ज्योत्स्ना सरिता का आलिंगन,
वह रजत गौर, उज्ज्वल जीवन,
आलोक पुरुष! मंगल चेतन!
केवल प्रकाश का था कलोल,
मधु किरणों की थी लहर लोल।
बन गया तमस था अलक जाल,
सर्वांग ज्योतिमय था विशाल,
अंतनिनाद ध्वनि से पूरित,
थी शन्य-भेदिनी--सत्ता चित्,
नटराज स्वयं थे नृत्य-निरत,
था अंतरिक्ष प्रहसित मुखरित,
स्वर लय होकर दे रहे ताल,
थे लुप्त हो रहे दिशाकाल।
लीला का स्पंदित आह्लाद,
वह प्रजा-पुंज चितिमय प्रसाद,
आनंद पूर्ण तांडव सुन्दर,
करते थे उज्ज्वल श्रम सीकर,
बनते तारा, हिमकर, दिनकर,
उड़ रहे धूलिकण-से भूधर,
संहार सृजन से युगल पाद--
गतिशील, अनाहत हुआ नाद।
बिखरे असंख्य ब्रह्मांड गोल,
युग त्याग ग्रहण कर रहे तोल,
विद्युत् कटाक्ष चल गया जिधर,
कंपित संसृति बन रही उधर,
कामायनी / 109