ऋतुओं के स्तर हुए तिरोहित भू-मंडल-रेखा विलीन-सी ,
निराधार उस महादेश में उदित सचेतनता नवीन-सी ।
त्रिदिक विश्व, आलोक बिन्दु भी तीन दिखाई पड़े अलग वे ,
त्रिभुवन के प्रतिनिधि थे मानो वे अनमिल थे किन्तु सजग थे ।
मनु ने पूछा-- "कौन नये ग्रह ये हैं, श्रद्धे ! मुझे बताओ ?
मैं किस लोक बीच पहुँचा, इस इंद्रजाल से मुझे बचाओ ।"
"इस त्रिकोण के मध्य बिंदु तुम शक्ति विपुल क्षमतावाले ये ,
एक एक को स्थिर हो देखो इच्छा, ज्ञान, क्रिया वाले ये ।
वह देखो रागारुण है जो ऊषा के कंदुक-सा सुंदर ,
छायामय कमनीय कलेवर भाव-मयी प्रतिमा का मंदिर ।
शब्द, स्पर्श, रस, रूप, गंध की पारदर्शिनी सुघड़ पुतलियाँ,
चारों ओर नृत्य करतीं ज्यों रूपवती रंगीन तितलियाँ !
इस कुसुमाकर के कानन के अरुण पराग पटल छाया में ,
इठलातीं सोतीं जगतीं ये अपनी भाव-भरी माया में ।
वह संगीतात्मक ध्वनि इनकी कोमल अंगड़ाई है लेती ,
मादकता की लहर उठा कर अपना अंबर तर कर देती ।
आलि-गन-सी मधुर प्रेरणा छू लेती, फिर सिहरन बनती ,
नव-अलंबुषा की व्रीडा़-सी खुल जाती है, फिर जा मुंदती ।
यह जीवन की मध्य भूमि है रस-धारा से सिंचित होती ,
मधुर लालसा की लहरों से यह प्रवाहिका स्पंदित होती ।
जिसके तट पर विद्युत-कण से मनोहारिणी आकृति वाले ,
छायामय सुषमा में विह्वल विचर रहे सुंदर मतवाले।
कामायनी / 113