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पृष्ठ:कामायनी.djvu/१२६

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सुमन-संकुलित भूमि-रंध्र-से मधुर गंध उठती रस-भीनी ,
वाष्प अदृश्य फुहारे इसमें छूट रहे, रस-बूंदें झीनी ।
घूम रही है यहाँ चतुर्दिक् चलचित्रों-सी संसृति छाया ,
जिस आलोक-बिन्दु को घेरे वह बैठी मुसक्याती माया ।

भाव-चक्र यह चला रही है इच्छा की रथ-नाभि घूमती ,
नवरस-भरी अराएँ अविरल चक्रवाल को चकित चूमतीं ।
यहाँ मनोमय विश्व कर रहा रागारुण चेतन उपासना ,
माया-राज्य ! यही परिपाटी पाश बिछा कर जीव फाँसना।

ये अशरीरी रूप, सुमन से केवल वर्ण गंध में फूले ,
इन अप्सरियों की तानों के मचल रहे हैं सुंदर झूले ।
भाव-भूमिका इसी लोक की जननी है सब पुण्य-पाप की ,
ढलते सब, स्वभाव प्रतिकृति बन गल ज्वाला से मथुर ताप की ।

नियममयी उलझन लतिका का भाव विटप से आकर मिलना ,
जीवन-वन की बनी समस्या आशा नभकुसुमों का खिलना।
चिर-वसंत का यह उद्गम है पतझर होता एक ओर है ,
अमृत हलाहल यहाँ मिले हैं सुख दुख बेधते, एक डोर है ।"

"सुंदर यह तुमने दिखलाया किंतु कौन वह श्याम देश है ?
कामायनी ! बताओ उसमें क्या रहस्य रहता विशेष है ?"

"मनु 'यह श्यामल कर्म लोक है धुँधला कुछ-कुछ अंधकार-सा ,
सघन हो रहा अविज्ञात यह देश मलिन है धूम-सार-सा ।
कर्म-चक्र-सा घूम रहा है यह गोलक, बन नियति-प्रेरणा ।
सब के पीछे लगी हुई है कोई व्याकुल नयी एषणा।

114 / कामायनी