पृष्ठ:कामायनी.djvu/१२९

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यहाँ शरद की धवल ज्योत्स्ना अंधकार को भेद निखरती ,
यह अनवस्था, युगल मिले से विकल व्यवस्था सदा बिखरती ।
देखो वे सब सौम्य बने हैं किन्तु सशंकित हैं दोषों से ,
वे संकेत दंभ के चलते भ्र-चालन मिस परितोषों से ।

यहाँ अछूत रहा जीवन रस छूओ मत, संचित होने दो ,
बस इतना ही भाग तुम्हारा तृषा ! मृषा, वंचित होने दो।
सामंजस्य चले करने ये किन्तु विषमता फैलाते हैं ,
मूल-स्वत्व कुछ और बताते इच्छाओं को झुठलाते हैं ।

स्वर्ण व्यस्त पर शांत बने-से शास्त्र शस्त्र-रक्षा में पलते ,
ये विज्ञान भरे अनुशासन क्षण-क्षण परिवर्त्तन में ढलते ,
यही त्रिपुर है देखा तुमने तीन बिन्दु ज्योतिर्मय इतने ,
अपने केंद्र बने दुःख-सुख में भिन्न हुए हैं ये सब कितने !
ज्ञान दूर , क्रिया भिन्न है इच्छा क्यों पूरी हो मन की ,
एक दूसरे से न मिल सके यह विडंबना है जीवन की ।"

महाज्योति-रेखा-सी बनकर श्रद्धा की स्मिति दौड़ी उनमें ,
वे संबद्ध हुए फिर सहसा जाग उठी थी ज्वाला जिनमें ।
नीचे ऊपर लचकीली वह विषम वायु में धधक रही सी ,
महाशून्य में ज्वाल सुनहरी सबको कहती 'नहीं नहीं' सी ।
शक्ति-तरंग प्रलय-पाचक का उस त्रिकोण में निखर-उठा सा ,
श्रृंग और डमरू निनाद बस सकल-विश्व में बिखर उठा-सा।
चितिमय चिता धधकती अविरल महाकाल का विषय नृत्य था ,
विश्व रंध्र ज्वाला से भरकर करता अपना विषम कृत्य था।

स्वप्न, स्वाप, जागरण भस्म हो इच्छा क्रिया ज्ञान मिल लय थे ,
दिव्य अनाहत पर-निनाद में श्रद्धायुत मनु बस तन्मय थे।

कामायनी / 117