पृष्ठ:कामायनी.djvu/१२८

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यहाँ नील-लोहित ज्वाला कुछ जला-गला कर नित्य ढ़ालती,
चोट सहन कर रुकने वाली धातु, न जिसको मृत्यु सालती।
वर्षा के घन नाद कर रहे तट-कूलों को सहज गिराती,
प्लावित करती वन कुंजों को लक्ष्य प्राप्ति सरिता बह जाती ।”

बस ! अब और न इसे दिखा तू यह अति भीषण कर्म जगत है।
श्रद्धे ! वह उज्ज्वल कैसा है जैसे पुंजीभूत रजत है। "

"प्रियतम ! यह तो ज्ञानक्षेत्र है सुख-दुख से है उदासीनता ,
यहाँ न्याय निर्मम, चलता है बुद्धि-चक्र, जिसमें न दीनता।
अस्ति-नास्ति का भेद, निरंकुश करते ये अणु तर्क-युक्त से ,
वे निस्संग, किन्तु कर लेते कुछ संबंध-विधान मुक्ति से।

यहाँ प्राप्य मिलता है केवल तृप्ति नहीं, कर भेद बांटती ,
बुद्धि, विभूति सकल सिकता-सी प्यास लगी है ओस चाटती ।
न्याय, तप, ऐश्वर्ष में पथे ये भावी चमकीले लगते ,
इस निदाध मरु में, सूखे से स्त्रोतों के तट जैसे जगते ।

मनोभाव से काय-कर्म के समतोलन में दत्तचित्त से ,
ये निस्पृह न्यायासन वाले चूक न सकते तनिक वित्त से !
अपना परिमित पात्र लिये ये बूंद-बूंद वाले निर्मर से ,
मांग रहे हैं जीवन का रस बैठ यहाँ पर अजर-अमर-से।

यहाँ विभाजन धर्म-तुला का अधिकारों की व्याख्या करता ,
यह निरीह, पर कुछ पाकर ही अपनी ढीली साँसें भरता ।
उत्तमता इनका निजस्व है अंबुज वाले सर-सा देखो ,
जीवन-मधु एकत्र कर रही उन ममाखियों-सा बस लेखो।

116 / कामायनी