सामग्री पर जाएँ

पृष्ठ:कामायनी.djvu/१३३

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ प्रमाणित है।

श्रद्धा ने सुमन बिखेरा शत-शत मधुपों का गुजन,
भर उठा मनोहर नभ में मनु तन्मय बैठे उन्मन।
पहचान लिया था सब ने फिर कैसे अब वे रुकते ,
वह देव-द्वंद्व त्रुतिमय था फिर क्यों न प्रणति में झुकते ।
तब वृषभ सोमवाही भी अपनी घंटाध्वनि कर्ता,
बढ़ चला इड़ा के पीछे मानव भी था डग भरता।
हाँ इड़ा आज भूली थी पर क्षमा न चाह रही थी।
वह दृश्य देखने को निज दृग-युगल सराह रही थी ।
चिर-मिलित प्रकृति से पुलकित वह चेतन-पुरुष-पुरातन ,
निज-शक्ति-तरंगायित था आनंद-अंबु-निधि शोभन ।
भर रहा अंक श्रद्धा का मानव उसको अपना कर,
था इड़ा शीश चरणों पर वह पुलक भरी गद्गद स्वर--
बोली—मैं धन्य हुई हैं जो यहाँ भूलकर आयी,
हे देवि ! तुम्हारी ममता बस मुझे खींचती लायी।
भगवति, समझी मैं ! सचमुच कुछ भी न समझ थी मुझको ।
सब को ही भुला रही थी अभ्यास यही था मुझको।
हम एक कुटुब बना कर यात्रा करने हैं आये ,
सुन कर यह दिव्य-तपोवन जिसमें सब अघ छूट जाये ।"

मनु ने कुछ-कुछ मुसक्या कर कैलास ओर दिखलाया ,
बोले, "देखो कि यहाँ पर कोई भी नहीं पराया।
हम अन्य न और कुटुंबी हम केवल एक हमीं हैं ,
तुम सब मेरे अवयव हो जिसमें कुछ नहीं कमी है।
शापित न यहाँ है कोई तापित पापी न यहाँ है ,
जीवन-वसुधा समतल है समरस है जो कि जहाँ है ।
चेतन समुद्र में जीवन लहरों - सा बिखर पड़ा है ,
कुछ छाप व्यक्तिगत, अपना निमित आकार खड़ा है ।
इस ज्योत्स्ना के जलनिधि में बुदबुद - सा रूप बनाये,
नक्षत्र दिखाई देते अपनी आभा चमकाये।

कामायनी / 121