पृष्ठ:कामायनी.djvu/१३४

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वैसे अभेद-सागर में प्राणों का सृष्टि-क्रम है ,
सब में घुल-मिल कर रसमय रहता यह भाव चरम है।
अपने दुःख-सुख से पुलकित यह मूर्त्त-विश्व सचराचर ,
चिति का विराट्-वपु मंगल यह सत्य सतत चित सुन्दर।
सबकी सेवा न परायी वह अपनी सुख-संसृति है ,
अपना ही अणु-अणु कण-कण द्वयता ही तो विस्मृति है ।
मैं की मेरी चेतनता सबको ही स्पर्श किये सी
सब भिन्न परिस्थितियों की है सादक घूंट पिये सी ।
जग ले ऊषा के दृग में सो ले निशि की पलकों में ,
हाँ स्वप्न देख ले सुंदर उझलन वाली अलकों में--
चेतन का साक्षी मानव हो निर्विकार हँसता-सा ,
मानस के मधुर मिलन में गहरे-गहरे धँसता-मा।
सब भेद-भाव भुलवा कर दुःख-सुख को दृश्य बनाता ,
मानव कह रे! यह मैं हूँ, यह विश्व नीड़ बन जाता !"

श्रद्धा के मधु-अधरों की छोटी-छोटी रेखाएँ ,
रागारुण किरण कला-सी विकसीं बन स्मिति लेखाएँ।
वह कामायनी जगत की मंगल-कामना-अकेली ,
थी-ज्योतिष्मती प्रफुल्लित मानस तट की वन वेली ।
वह विश्व-चेतना पुलकित थी पूर्ण-काम की प्रतिमा ,
जैसे गंभीर महाहृद हो भरा विमल जल महिमा ।
जिस मुरली के निस्वन से यह शून्य रागमय होता ,
वह कामायनी विहंसती अग जग था मुखरित होता ।

क्षण-भर में सब परिवर्त्तत अणु - अण थे विश्व-कमल के ,
पिंगल-पराग से मचले आनंद-सुधा-रस छल के ।
अति मधुर गंधवह बहता परिमल बूँदों से सिंचित ,
सुख-स्पर्श कमल-केसर का कर आया रज से रंजित।

122 / कामायनी