पृष्ठ:कामायनी.djvu/३३

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चल-चक्र वरुण का ज्योति-भरा व्याकुल तू क्यों देता फेरी?
तारों के फूल बिखरते हैं लटत हैं असफलता तेरी।
नव नील कुंज हैं झीम रहे कुसुमों की कथा न बन्द हुई,
है अंतरिक्ष आमोद भरा हिम-कणिका ही मकरंद हुई।
इस इंदीवर से गंध भरी बुनती जाली मधु की धारा,
मन-मधुकर की अनुरागमयी बन रही मोहिनी-सी कारा।
अणुओं को है विश्राम कहाँ यह कृतिमय वेग भरा कितना!
अविराम नाचता कंपन है, उल्लास सजीव हुआ कितना!
उन नृत्य-शिथिल-निश्वासों की कितनी है मोहमयी माया?
जिनसे समीर छनता-छनता बनता है प्राणों की छाया।
आकाश-रंध्र है पूरित-से यह सृष्टि गहन-सी होती है;
आलोक सभी मूर्च्छित सोते यह आँख थकी-सी रोती है।
सौंदर्य्यमयी चंचल कृतियाँ बनकर रहस्य हैं नाच रहीं,
मेरी आँखों को रोक वहीं आगे बढ़ने में जाँच रहीं।
मैं देख रहा हूँ जो कुछ भी वह सब क्या छाया उलझन है?
सुन्दरता के इस परदे में क्या अन्य धरा कोई धन है?
मेरी अक्षय निधि! तुम क्या हो पहचान सकूँगा क्या न तुम्हें?
उलझन प्राणों के धागों की सुलझन का समझूँ मान तुम्हें?
माधवी निशा की अलसाई अलकों में लुकते तारा-सी,
क्या ही सूने मरु-अंचल में अंतःसलिला की धारा-सी!
श्रुतियों में चुपके-चुपके से कोई मधु-धारा घोल रहा,
इस नीरवता के परदे में जैसे कोई कुछ बोल रहा।
है स्पर्श मलय के झिलमिल सा संज्ञा को और सुलाता है,
पुलकित हो आँखें बंद किये तंद्रा को पास बुलाता है।
व्रीड़ा है यह चंचल कितनी विभ्रम से घट खींच रही,
छिपने पर स्वयं मृदुल कर से क्यों मेरी आँखें मींच रही?
उद्बुद्ध क्षितिज को श्याम छटा इस उदित शुक्र की छाया में,
ऊषा-सा कौन रहस्य लिये सोती किरनों की काया में!

कामायनी / 21