पृष्ठ:कामायनी.djvu/३४

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उठती है किरनों के ऊपर कोमल किसलय की छाजन-सी ,
स्वर का मधु-निस्वन रंध्रों में--जैसे कुछ दूर बजे बंसी।
सब कहते हैं--'खोलो-खोलो, छवि देखूँगा जीवन घन की'
आवरण स्वयं बनते जाते हैं भीड़ लग रही दर्शन की।
चाँदनी सदृश खुल जाय कहीं अवगुंठन आज सँवरता-सा,
जिसमें अनन्त कल्लोल भरा लहरों में मस्त विचरता-सा--
अपना फेनिल फन पटक रहा मणियों का जाल लुटाता-सा,
उन्निद्र दिखाई देता हो उन्मत्त हुआ कुछ गाता-सा।"

"जो कुछ हो, मैं न सम्हालूँगा इस मधुर भार को जीवन के,
आने दो कितनी आती हैं बाधाएँ दम-संयम बन के।
नक्षत्रो, तुम क्या देखोगे--इस ऊषा की लाली क्या है?
संकल्प भर रहा है उनमें सन्देहों की जाली क्या है?
कौशल यह कोमल कितना है सुषमा दुर्भेद्य बनेगी क्या?
चेतना इंद्रियों की मेरी मेरी ही हार बनेगी क्या?"

"पीता हूँ, हाँ, मैं पीता हूँ--यह स्पर्श, रूप, रस, गंध भरा,
मधु, लहरों के टकराने से ध्वनि में है क्या गुंजार भरा।
तारा बनकर यह बिखर रहा क्यों स्वप्नों का उन्माद अरे!
मादकता-माती नींद लिये सोऊँ मन में अवसाद भरे।
चेतना शिथिल-सी होती है उन अंधकार की लहरों में—-"
मनु डूब चले धीरे-धीरे रजनी के पिछले पहरो में।
उस दूर क्षितिज में सृष्टि बनी स्मृतियों की संचित छाया से,
इस मन को है विश्राम कहाँ! चंचल यह अपनी माया से।
जागरण-लोक था भूल चला स्वप्नों का सुख-संचार हुआ,
कौतुक-सा बन मनु के मन का वह सुन्दर क्रीड़ागार हुआ।
था व्यक्ति सोचता आलस में चेतना सजग रहती दुहरी,
कानों के कान खोल करके सुनती थी कोई ध्वनि गहरी।

22 / कामायनी