पृष्ठ:कामायनी.djvu/३८

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वासना

 
चल पड़े कब से हृदय दो, पथिक-से अश्रांत ,
यहाँ मिलने के लिए, जो भटकते थे भ्रांत ।
एक गृहपति, दूसरा था अतिथि विगत-विकार ,
प्रश्न था यदि एक, तो उत्तर द्वितीय उद्धार।
एक जीवन-सिंधु था, तो वह लहर लघु कलोल ,
एक नवल प्रभात, तो वह स्वर्ण-किरण अमोल ।
एक था आकाश वर्षा का सजल उद्दाम ;
दूसरा रंजित किरण से श्री-कलित घनश्याम ।
नदी-तट के क्षितिज में नव-जलद सायंकाल-
खेलता-दो बिजलियों से ज्यों मधुरिमा-जाल ।
लड़ रहे अविरत युगल थे चेतना के पाश ;
एक सकता था न कोई दूसरे को फाँस ।
था समर्पण में ग्रहण का एक सुनिहित भाव ,
थी प्रगति, पर अड़ा रहता था सतत अटकाव ।
चल रहा था विजन-पथ पर मधुर जीवन-खेल ,
दो अपरिचित से नियति अब चाहती थी मेल ।
नित्य परिचित हो रहे तब भी रहा कुछ शेष ,
गूढ़ अंतर का छिपा रहता रहस्य विशेष ।
दूर, जैसे सघन वन-पथ-अंत का आलोक-
सतत होता जा रहा हो, नयन की गति रोक ।

26 / कामायनी