गिर रहा निस्तेज गोलक जलधि में असहाय ,
धव-पटल में डूबता था किरण का समुदाय ।
कर्म का अवसाद दिन से कर रहा छल-छंद ,
मधुकरी का सुरस-संचय हो चला अब बंद ।
उठ रही थी कालिमा धूसर क्षितिज से दीन ,
भेंटता अंतिम अरुण आलोक-वैभवं-हीन ।
यह दरिद्र-मिलन रहा रच एक करुणा लोक ,
शोक भर निर्जन निलय से बिछुड़ते थे कोक ।
मनु अभी तक मनन करते थे लगाये ध्यान,
काम के संदेश से ही भर रहे थे कान ।
इधर गृह में आ जुटे थे उपकरण अधिकार ,
शस्य,पशु या धान्य का होने लगा संचार ।
नई इच्छा खींच लाती,अतिथि का संकेत-
चल रहा था सरल-शासन युक्त-सुरुचि-समेत ।
देखते हुए ये अग्निशाला से कुतूहल-युक्त ,
मनु चमत्कृत निज नियति का खेल बंधन-मुक्त।
एक माया ? आ रहा था पशु अतिथि के साथ ,
हो रहा था मोह करुणा से सजीव सनाथ ।
चपल कोमल-कर रहा फिर सतत पशु के अंग ,
स्नेह से करता चमर-उद्ग्रीव हो वह संग ।
कभी पुलकित रोमराजी से शरीर उछाल ,
भांवरों से निज बनाता अतिथि सन्निधि जाल ।
कभी निज भोले नयन से अतिथि बदन निहार ,
सकल संचित-स्नेह देता दृष्टि-पथ से ढार ।
और वह पुचकारने का स्नेह शबलित चाव ,
मंजु ममता से मिला बन हृदय का सद्भाव ।
देखते-ही-देखते दोनों पहुंच कर पास ,
लगे करने सरल शोभन मधुर मुग्ध विलास ।
कामायनी / 27