कहा हँसकर--"अतिथि हूं मैं, और परिचय व्यर्थ ,
तुम कभी उद्विग्न इतने थे न इसके अर्थ ।
चलो, देखो वह चला आता बुलाने आज--
सरल हँसमुख विधु जलद-लघु-खंड-वाहन साज !
कालिमा घुलने लगी घुलने लगा आलोक ,
इसी निभूत अनंत में बसने लगा अब लोक ।
इस निशामुख की मनोहर सुधामय मुसक्यान ,
देख कर सब भूल जायें दुःख के अनुमान ।
देख लो, ऊँचे शिखर का व्योम-चुंबन-व्यस्त--
लौटना अंतिम किरण का और होना अस्त ।
चलो तो इस कौमुदी में देव आवें आज ,
प्रकृति का यह स्वप्न-शासन, साधना का राज ।"
सृष्टि हँसने लगी आंखों में खिला अनुराग ,
राग-रंजित चंद्रिका थी, उड़ा सुमन-पराग ।
और सता था अतिथि मनु का पकड़कर हाथ ,
चले दोनों के स्वप्न-पथ में, स्नेह-संबल साथ ।
देवदारु निकुंज गह्वर सब सुधा में स्नात ,
सब मनाते एक उत्सव जागरण की रात ।
था रही थी मदिर भीनी माधवी की गंध ,
पवन के घन घिरे पड़ते थे बने मधु-अंध ।
शिथिल अलसाई पड़ी छाया निशा की कांत--
सो रही थी शिशिर कण की सेज पर विश्रांत ।
उसी झुरमुट में हृदय की भावना थी भ्रांत ,
जहाँ छाया सृजन करती थी कुतूहल कांत ।
कहा मनु ने -"तुम्हें देखा अतिथि ! कितनी बार ,
किंतु इतने तो न थे तुम दबे छवि के भार !
30 / कामायनी