पृष्ठ:कामायनी.djvu/४३

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पूर्व-जन्म कहें कि या स्पृहणीय मधुर अतीत
गूँजते जब मंदिर घन में वासना के गीत ।
भूलकर जिस दृश्य को मैं बना आज अचेत,
वही कुछ सव्रीड़, सस्मित कर रहा संकेत ।
'मैं तुम्हारा हो रहा' हूँ' यही सुदृढ़ विचार,
चेतना का परिधि बनता धूम चक्राकार ।
मधु बरसती विधु किरन है काँपती सुकुमार ?
पवन में है पुलक, मंथर चल रहा मधु -भार ।
तुम समीप, अधीर इतने आज क्यों है प्राण ?
छक रहा है किस सुरभि से तृप्त होकर घ्राण  ?
आज क्यूंकि संदेह होता रूठने का व्यर्थ,
क्यों मनाना चाहता-सा बन रहा असमर्थ !
धमनियों में वेदना रक्त का संचार,
हृदय में है कंपती धड़कन, लिये लघु भार !
चेतना रंगीन ज्वाला परिधि में सानंद
मानती-सी दिव्य-कुछ गा रही है छंद ।
अग्निकीट समान जलती है भरी उत्साह ,
और जीवित है, न छाले हैं न उसमें दाह !
कौन हो तुम विश्व-माया-कुहक-सी साकार ,
प्राण-सत्ता के मनोहर भेद-सी सुकुमार !
हृदय जिसकी कांत छाया में लिये निश्वास ,
थके पथिक समान करता व्यजन ग्लानि विनाश ।"

श्याम-नभ में मधू-किरण-सा फिर वही मृदु हास,
सिंधु की हिलकोर दक्षिण का समीर-विलास !
कुंज में गुंजरित कोई मुकुल सा अव्यक्त-
लगा कहने अतिथि, मन थे सुन रहे अनुरक्त-
"यह अतृप्ति अधीर मन की, क्षोभयुत उन्माद ,
सखे ! तुमुल-तरंग-सा उच्छ्वासमय संवाद।

कामायनी/31