पृष्ठ:कामायनी.djvu/४८

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किरनों का रज्जु समेट लिया जिसका अवलम्बन ले चढ़ती ;
रस के निर्झर में धँस कर मैं आनन्द-शिखर के प्रति बढ़ती।
छूने में हिचक, देखने में पलकें आँखों पर झुकती हैं ,
कलरव परिहास भरी गूंजें अधरों तक सहसा रुकती हैं।
संकेत कर रही रोमाली चुपचाप बरजती खड़ी रही ,
भाषा बन भौंहों की काली रेखा-सी भ्रम में पड़ी रही।
तुम कौन ! हृदय की परवशता ? सारी स्वतंत्रता छीन रही
स्वच्छंद सुमन जो खिले रहे जीवनवन से हो बीन रही !"
संध्या की लाली में हंसती, उसका ही आश्रय लेती-सी ,
छाया प्रतिमा गुनगुना उठी श्रद्धा का उत्तर देती-सी।


"इतना न चमत्कृत हो बाले ! अपने मन का उपकार करो,
मैं एक पकड़ है जो कहती ठहरो कुछ सोच-विचार करो।
अंबर-चुंबी हिम-श्रृंगों से कलरव कोलाहल साथ लिये,
विद्युत की प्राणमयी धारा बहती जिसमें उन्माद लिये।
मंगल कुंकुम की श्री जिसमें निखरी हो ऊषा की लाली
भोला सुहाग इठलाता हो ऐसा हो जिसमें हरियाली ,
हो नयनों का कल्याण बना आनन्द सुमन-सा विकसा हो,
वासंती के वनवैभव में जिसका पंचमस्वर पिक-सा हो ,
जो गूँज उठे फिर नस-नस में मूर्च्छना समान मचलता-सा ,
आँखों के साँचे में आकर रमणीय रूप बन ढलता सा,
नयनों की नीलम की घाटी जिस रस धन से छा जाती हो,
वह कौंध कि जिससे अन्तर की शीतलता ठंडक पाती हो,
हिल्लोल भरा हो ऋतुपति का गोधूली की सी ममता हो ,
जागरण प्रात-सा हँसता हो जिसमें मध्याह्न निखरता हो ,
हो चकित निकल आई सहसा जो अपने प्राची के घर से ,
उस नवल चंद्रिका-से बिछले जो मानस की लहरों पर से ,
फूलों की कोमल पंखड़ियाँ बिखरें जिसके अभिनन्दन में ,
मकरंद मिलाती हों अपना स्वागत के कुंकुम चन्दन में,

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