पृष्ठ:कामायनी.djvu/४९

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कोमल किसलय मर्मर-रव-से जिसका जयघोष सुनाते हों,
जिसमें दुःख-सुख मिलकर मन के उत्सव आनंद मनाते हों,
उज्ज्वल वरदान चेतना का सौन्दर्य्य जिसे सब कहते हैं ,
जिसमें अनंत अभिलाषा के सपने सब जगते रहते हैं ।
मैं उसी चपल की धात्री हूँ , गौरव महिमा हूँ सिखलाती ,
ठोकर जो लगने वाली है उसको धीरे से समझाती,
मैं देव-सृष्टि की रति-रानी निज पंचबाण से वंचित हो ,
बन आवर्जना-मूर्त्ति दीना अपनी अतृप्ति-सी संचित हो ,
अवशिष्ट रह गई अनुभव में अपनी अतीत असफलता-सी,
लीला विलास की खेद-भरी अवसादमयी श्रम-दलिता-सी,
मैं रति की प्रतिकृति लज्जा हूं मैं शालीनता सिखाती हूँ,
मतवाली सुन्दरता पग में नूपुर सी लिपट मनाती हूँ,
लाली बन सरल कपोलों में आँखों में अंजन सी लगती ,
कुंचित अलकों सी घुंघराली मन की मरोर बनकर जगती,
चंचल किशोर सुन्दरता की मैं करती रहती रखवाली ,
मैं वह हलकी सी मसलन हूँ जो बनती कानों की लाली ।"

"हाँ, ठीक, परन्तु बताओगी मेरे जीवन का पथ क्या है ?
इस निविड़ निशा में संसृति की आलोकमयी रेखा क्या है ?
यह आज समझ तो पाई हूँ मैं दुर्बलता में नारी हूँ ,
अवयव की सुन्दर कोमलता लेकर मैं सबसे हारी हूं।
पर मन भी क्यों इतना ढीला अपने ही होता जाता है ,
घनश्याम-खंड-सी आँखों में क्यों सहसा जल भर आता है ?
सर्वस्व-समर्पण करने की विश्वास-महा-तरु-छाया में,
चुपचाप पड़ी रहने की क्यों ममता जगती है माया में ?
छायापथ में तारक-द्युति सी झिलमिल करने की मधु-लीला ;
अभिनय करती क्यों इस मन में कोमल निरीहता श्रम-शीला ?
निस्संबल होकर तिरती हूँ इस मानस की गहराई में ,
चाहती नहीं जागरण कभी सपने की इस सुघराई में।

कामायनी /37