पृष्ठ:कामायनी.djvu/५०

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नारी जीवन का चित्र यही क्या ? विकल रंग भर देती हो ,
अस्फुट रेखा की सीमा में आकार कला को देती हो ।
रुकती हूं और ठहरती हूं पर सोचविचार न कर सकती ,
पगली-सी कोई अंतर में बैठी जैसे अनुदिन बकती ।
मैं जभी तोलने का करती उपचार स्वयं तुल जाती हूं ,
भुजलता फँसा कर नर-तरु से झूले-सी झोंके खाती हूँ।
इस अर्पण में कुछ और नहीं केवल उत्सर्ग छलकता है ,
मैं दे दूँ और न फिर कुछ लूँ इतना ही सरल झलकता है।"

"क्या कहती हो ठहरो नारी! संकल्प अश्रु-जल-से अपने--
तुम दान कर चुकी पहले ही जीवन के सोने-से सपने ।
नारी ! तुम केवल श्रद्धा हो विश्वास-रजत-नग पगतल में ,
पीयूष-स्रोत-सी बहा करो जीवन के सुंदर समतल में।
देवों की विजय, दानवों की हारों का होता युद्ध रहा,
संघर्ष सदा उर-अंतर में जीवित रह नित्य-विरुद्ध रहा ।
आँसू से भींगे अंचल पर मन का सब कुछ रखना होगा--
तुमको अपनी स्मित रेखा से यह संधिपत्र लिखना होगा

38 / कामायनी