पृष्ठ:कामायनी.djvu/६१

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ईर्ष्या

पल भर की उस चंचलता ने खो दिया हृदय का स्वाधिकार ,
श्रद्धा की अब वह मधुर निशा फैलाती निष्फल अंधकार !
मनु को अब मृगया छोड़ नहीं रह गया और था अधिक काम ,
लग गया रक्त था उस मुख में--हिंसा-सुख लाली से ललाम ।
हिंसा ही नहीं--और भी कुछ वह खोज रहा था मन अधीर ,
अपने प्रभुत्व की सुख सीमा जो बढ़ती हो अवसाद चीर ।
जो कुछ मनु के करतलगत था उसमें न रहा कुछ भी नवीन ,
श्रद्धा का सरल विनोद नहीं रुचता अब था बन रहा दीन ।
उठती अंतस्तल से सदैव दुर्ललित लालसा जो कि कांत ,
वह इंद्रचाप-सी झिलमिल हो दब जाती अपने आप शांत।

"निज उद्गम का मुख बंद किये कब तक सोयेंगे अलस प्राण ,
जीवन की चिर चल पुकार रोये कब तक , है कहाँ त्राण !
श्रद्धा का प्रणय और उसकी आरंभिक सीधी अभिव्यक्ति ,
जिसमें व्याकुल आलिंगन का अस्तित्व न तो है कुशल सूक्ति !
भावनामयी वह स्फूर्त्ति नहीं नव-नव स्मित रेखा में विलीन !
अनुरोध न तो उल्लास, नहीं कुसुमोद्गम-सा कुछ भी नवीन !
आती है वाणी में न कभी वह चाव भरी लीला-हिलोर ,
जिसमें नूतनता नृत्यमयी इठलाती हो चंचल मरोर ।
जब देखो बैठी हुई वहीं शालियाँ बीन कर नहीं श्रांत ,
या अन्न इकट्ठे करती है होती न तनिक सी कभी क्लांत।

कामायनी /49