पृष्ठ:कामायनी.djvu/६२

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बीजों का संग्रह और इधर चलती है तकली भरी गीत ,
सब कुछ लेकर बैठी है वह, मेरा अस्तित्व हुआ अतीत !"

लौटे थे मृगया से थक कर दिखलाई पड़ता गुफाद्वार ,
पर और न आगे बढ़ने की इच्छा होती, करते विचार !
मृग डाल दिया, फिर धनु को भी, मनु बैठ गये शिथिलित शरीर ,
बिखरे थे सब उपकरण वहीं आयुध, प्रत्यंचा, श्रृंग, तीर।

"पश्चिम की रागमयी संध्या अब काली है हो चली, किन्तु ,
अब तक आये न अहेरी वे क्या दूर ले गया चपल जंतु"--
यों सोच रही मन में अपने हाथों में तकली रही घूम ,
श्रद्धा कुछ-कुछ अनमनी चली अलकें लेतीं थीं गुल्फ चूम ।
केतकी-गर्भ-सा पीला मुंह आंखों में आलस भरा स्नेह ,
कुछ कृशता नई लजीली थी कंपित लतिका-सी लिये देह !
मातृत्व-बोझ से झुके हुए बंध रहे पयोधर पीन आज ,
कोमल काले ऊनों की नवपट्टिका बनाती रुचिर साज ,
सोने की सिकता में मानो कालिंदी बहती भर उसाँस ।
स्वर्गंगा में इंदीवर की या एक पंक्ति कर रही हास !
कटि में लिपटा था नवल-वसन वैसा ही हलका बुना नील ।
दुर्भर थी गर्भ-मधुर पीड़ा झेलती जिसे जननी सलील ।
श्रम-बिन्दु बना सा झलक रहा भावी जननी का सरस गर्व ,
बन कुसुम बिखरते थे भू पर आया समीप था महापर्व ।
मनु ने देखा जब श्रद्धा का वह सहज-खेद से भरा रूप ,
अपनी इच्छा का दृढ़ विरोध--जिसमें वे भाव नहीं अनूप ।
वे कुछ भी बोले नहीं, रहे चुपचाप देखते साधिकार ,
श्रद्धा कुछ कुछ मुस्कुरा उठी ज्यों जान गई उनका विचार ।

'दिन भर थे कहां भटकते तुम' बोली श्रद्धा भर मधुर स्नेह--
यह हिंसा इतनी है प्यारी जो भुलवाती है देह-गेह।

कामायनी /50