पृष्ठ:कामायनी.djvu/६५

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चुप थे पर श्रद्धा ही बोली--'देखो यह तो बन गया नीड़ ,
पर इसमें कलरव करने को आकुल न हो रही अभी भीड़।

तुम दूर चले जाते हो जब--तब लेकर तकली, यहां बैठ ,
मैं उसे फिराती रहती हूँ अपनी निर्जनता बीच पैठ।
मैं बैठी गाती हूं तली के प्रतिवर्त्तन में स्वर विभोर--
'चल री तकली धीरेधीरे प्रिय गये खेलने को अहेर'।

जीवन का कोमल तंतु बढ़े तेरी ही मंजुलता समान ,
चिर-नग्न प्राण उनमें लिपटें सुन्दरता का कुछ बढ़े मान।
किरनों-सी तू बुन दे उज्ज्वल मेरे मधु-जीवन का प्रभात ,
जिसमें निर्वसना प्रकृति सरल ढँक ले प्रकाश से नवल गात ।

वासना भरी उन आंखों पर आवरण डाल दे कांतिमान ,
जिसमें सौंदर्य निखर आवे लतिका में फुल्ल-कुसुम-समान ।
अब वह आगंतुक गुफा बीच पशु सा न रहे निर्वसन-नग्न ,
अपने अभाव की जड़ता में वह रह न सकेगा कभी मग्न।


सूना न रहेगा यह मेरा लघु-विश्व कभी जब रहोगे न ,
मैं उसके लिए बिछाऊँगी फूलों के रस का मृदुल फेन।
झूले पर उसे झुलाऊंगी दुलरा कर लूंगी वदन चूम ,
मेरी छाती से लिपटा इस घाटी में लेगा सहज घूम।

वह आवेगा मृदु मलयज-सा लहराता अपने मसृण बाल ,
उसके अधरों से फैलेगी नवमधुमय स्मिति-लतिका-प्रवाल ।
अपनी मीठी रसना से वह बोलेगा ऐसे मधुर बोल ,
मेरी पीड़ा पर छिड़केगा जो कुसुम-धूलि मकरंद घोल।
मेरी आँखों का सब पानी तब बन जायेगा अमृत स्निग्ध ,
उन निर्विकार नयनों में जब देखूँगी अपना चित्र मुग्ध !"

कामायनी / 53