पृष्ठ:कामायनी.djvu/६४

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"मैं यह तो मान नहीं सकता सुख सहज-लब्ध यों छूट जाये ,
जीवन का जो संघर्ष चले वह विफल रहे हम छले जायँ ।
काली आँखों की तारा में --मैं देख अपना चित्र धन्य ,
मेरा मानस का मुकुर रहे प्रतिबिंबित तुमसे ही अनन्य।
श्रद्धे ! यह नव संकल्प नहीं चलने का लघु जीवन अमोल ,
मैं उसको निश्चय भोग चलूँ जो सुख चलदल सा रहा डोल !
देखा क्या तुमने कभी नहीं स्वर्गीय सुखों पर प्रलय-नृत्य ?
फिर नाश और चिर-निद्रा है तब इतना क्यों विश्वास सत्य ?
यह चिर-प्रशांत-मंगल की क्यों अभिलाषा इतनी रही जाग ?
यह संचित क्यों हो रहा स्नेह किस पर इतनी हो सानुराग ?
यह जीवन का वरदान--मुझे दे दो रानी--अपना दुलार ,
केवल मेरी ही चिन्ता का तव-चित्त वहन कर रहे भार।
मेरा सुन्दर विश्राम बना सृजता हो मधुमय विश्व एक ,
जिसमें बहती हो मधुधारा लहरें उठती हों एक-एक ।"

"मैंने तो एक बनाया है चल कर देखो मेरा कुटीर ,"
यों कहकर श्रद्वा हाथ पकड़ मनु को ले चली वहाँ अधीर।
उस गुफा समीप पुआलों की छाजन छोटी सी शांति-पुंज,
कोमल लतिकाओं की डालें मिल सघन बनाती जहाँ कुंज।
थे वातायन भी कटे हुए--प्राचीर पर्णमय रचित शुभ्र ,
आवें क्षण भर तो चले जायँ—रुक जायँ कहीं न समीर, अभ्र।
उसमें था झूला पड़ा हुआ वेतसी - लता का सुरुचिपूर्ण ,
बिछ रहा धरातल पर चिकना सुमनों का कोमल सुरभि-चूर्ण।
कितनी मीठी अभिलाषाएँ उसमें चुपके से रहीं घूम !
कितने मंगल के मधुर गान उसके कानों को रहे चूम !

मनु देख रहे थे चकित नया यह गृहलक्ष्मी का गृह-विधान !
पर कुछ अच्छा-सा नहीं लगा 'यह क्यों? किसका सुख साभिमान?'

52 / कामायनी