पृष्ठ:कामायनी.djvu/७२

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यह अभिनव मानव प्रजा सृष्टि
द्वयता में लगी निरंतर ही वर्णों की करती रहे वृष्टि
अनजान समस्याएँ गढ़ती रचती हो अपनी ही विनष्टि
कोलाहल कलह अनंत चले, एकता नष्ट हो बड़े भेद
अभिलषित वस्तु तो दूर रहे, हाँ मिले अनिच्छित दुखद खेद
हृदयों का हो आवरण सदा अपने वक्षस्थल की जड़ता
पहचान सकेंगे नहीं परस्पर चले विश्व गिरता पड़ता
सब कुछ भी हो यदि पास भरा पर दूर रहेगी सदा तुष्टि
दुःख देगी यह संकुचित दृष्टि ।

अनवरत उठे कितनी उमंग
चुंबित हों आंसू जलधर से अभिलाषाओं के शैल-श्रृंग
जीवन-नद हाहाकार भरा—हो उठती पीड़ा की तरंग
लालसा भरे यौवन के दिन पतझड़ से सूखे जायँ बीत
संदेह नये उत्पन्न रहें उनसे संतप्त सदा सभीत
फैलेगा स्वजनों का विरोध बन कर तम वाली श्याम-अमा
दारिद्र्य दलित बिलखाती हो यह शस्यश्यामला प्रकृति-रमा
दुःख-नीरद में बन इंद्रधनुष बदले नर कितने नये रंग—
बन तृष्णा-ज्वाला का पतंग ।

कह प्रेम न रह जाये पुनीत
अपने स्वार्थों से आवृत हो मंगल-रहस्य सकुचे सभीत
सारी संसृति हो विरह भरी, गाते ही बीतें करुण गीत
आकांक्षा-जलनिधि की सीमा हो क्षितिज निराशा सदा रक्त
तुम राग-विराग करो सबसे अपने को कर शतश: विभक्त
मस्तिष्क हृदय के हो विरुद्ध, दोनों में हो सद्भाव नहीं
वह चलने को जब कहे कहीं तब हृदय विकल चल जाय कहीं
रोकर बीते सब वर्तमान क्षण सुन्दर अपना हो अतीत
पेंगों में झूले हार-जीत ।

60 / कामायनी