पृष्ठ:कामायनी.djvu/७३

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संकुचित असीम अमोघ शक्ति
जीवन को बाधा-मय पथ पर ले चले भेद से भरी भक्ति
या कभी अपूर्ण अजंता में हो रागमयी-सी महासक्ति
व्यापकता नियति-प्रेरणा बन अपनी सीमा में रहे बंद
सर्वज्ञ-ज्ञान का झुद्र-अंश विद्या बनकर कुछ रचे छंद
कर्त्तृत्व-सकल बनकर आवे नश्वर - छाया-सी ललित-कला
नित्यता विभाजित हो पल-पल में काल निरंतर चले ढला
तुम समझ न सको, बुराई से शुभ-इच्छा की है बड़ी शक्ति
हो विफल तर्क से भरी युक्ति ।

जीवन सारा बन जाय युद्ध
उस रक्त, अग्नि की वर्षा में बह जायँ सभी जो भाव शुद्ध
अपनी शंकाओं से व्याकुल तुम अपने ही होकर विरुद्ध
अपने को आबूत किये रहो दिखलाओ निज कृत्रिम स्वरूप
वसुधा के समतल पर उन्नत चलता फिरता हो दंभ-स्तूप
श्रद्धा इस संसृति की रहस्य—व्यापक, विशुद्ध, विश्वासमयी
सब-कुछ देकर नव-निधि अपनी तुमसे ही तो वह छली गयी
हो वर्तमान से वंचित तुम अपने भविष्य में रहो रुद्ध
सारा प्रपंच ही हो अशुद्व ।

तुम जरा मरण में चिर अशांत
जिसको अब तक समझे थे सब जीवन में परिवर्तन अनंत
अमरत्व, वही अब भूलेगा तुम व्याकुल उसको कहो अंत
दुःखमय चिर चिंतन के प्रतीक ! श्रद्धा-वंचक बनकर अधीर
मानव-संतति ग्रह-रश्मि-रज्जु से भाग्य बाँध पीटे लकीर
'कल्याण भूमि यह लोक' यही श्रद्धा-रहस्य जाने न प्रजा
अतिचारी मिथ्या मान इसे परलोक-वंचना से भर जा
आशाओं में अपने निराश निज बुद्धि विभव से रहे भ्रांत
वह चलता रहे सदैव श्रांत |"

कामायनी / 61