किन्तु, विरहिणी के जीवन में एक घड़ी विश्राम नहीं--
बिजली-सी स्मृति चमक उठी तब, लगे जभी तम-घन धिरने।
संध्या नील सरोरुह से जो इयाम पराग बिखरते थे,
शैल-घाटियों के अंचल को वे धीरे से भरते थे।
तृण-गुल्मों से रोमांचित नग सुनते उस दुःख की गाथा,
श्रद्धा की सूनी साँसों से मिल कर जो स्वर भरते थे--
"जीवन में सुख'अधिक या कि दुःख, मंदाकिनि कुछ बोलोगी?
नभ में नखत अधिक, सागर में या बुदबुद हैं, गिन दोगी?
प्रतिबिंबित हैं तारा तम में, सिंधु मिलन को जाती हो,
या दोनों प्रतिबिंब एक के इस रहस्य को खोलोगी!
इस अवकाश-पटी पर जितने चित्र बिगड़ते बनते हैं;
उनमें कितने रंग भरे जो सुरधनु पट से छनते हैं,
किन्तु सकल अणु पल में घुल कर व्यापक नील-शून्यता-सा,
जगती का आवरण वेदना का धूमिल-पट बुनते हैं।
दग्ध-श्वास से आह न निकले सजल कुहु में आज यहाँ!
कितना स्नेह जला कर जलता ऐसा है लघु-दीप कहाँ?
बुझ न जाय वह साँझ-किरन सी दीप-शिखा इस कुटिया की,
शलभ समीप नहीं तो अच्छा, सुखी अकेले जले यहाँ!
आज सुनें केवल चुप होकर, कोकिल जो चाहे कह ले,
पर न परागों की वैसी है चहल-पहल जो थी पहले।
इस पतझड़ की सूनी डाली और प्रतीक्षा की संध्या ,
कामायनि ! तू हृदय कड़ा कर धीरे-धीरे सब सह ले!
कामायनी / 67