पृष्ठ:कामायनी.djvu/८०

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बिरल डालियों के निज सब ले दुःख के निश्वास रहे ;
उस स्मृति का समीर चलता है मिलन कथा फिर कौन कहे ?
आज विश्व अभिमानी जैसे रूठ रहा अपराध बिना ,
किन चरणों को धोयेंगे जो अश्रु पलक के पार बहे !

अरे मधुर हैं कष्ट पूर्ण भी जीवन की बीती घड़ियाँ--
जब निस्संबल होकर कोई जोड़ रहा बिखरी कड़ियाँ ।
वही एक जो सत्य बना था चिर-सुन्दरता में अपनी ,
छिपा कहीं, तब कैसे सुलझें उलझी सुख-दुःख की लड़ियाँ !

विस्मृत हों वे बीती बातें, अब जिनमें कुछ सार नहीं हैं ;
वह जलती छाती न रही अब वैसा शीतल प्यार नहीं !
सब अतीत में लीन हो चलीं, आशा, मधु-अभिलाषाएँ ;
प्रिय की निष्ठुर विजय हुई, पर यह तो मेरी हार नहीं !

वे आलिंगन एक पाश थे, स्मिति चपला थी, आज कहाँ ?
और मधुर विश्वास : अरे वह पागल मन का मोह रहा ,
वंचित जीवन बना समर्पण यह अभिमान अकिंचन का ;
कभी दे दिया था कुछ मैंने, ऐसा अब अनुमान रहा ।

विनिमय प्राणों का यह कितना भयसंकुल व्यापार अरे !
देना हो जितना दे दे तु, लेना ! कोई यह न करे !
परिवर्त्तन की तुच्छ प्रतीक्षा पूरी कभी न हो सकती,
संध्या रवि देकर पाती है इधर-उधर उडुगन बिखरे !

कुछ दिन जो हँसते आये अंतरिक्ष अरुणाचल से ,
फूलों की भरमार स्वरों का सृजन लिये कुहक बल से ।
फैल गयी जब स्मिति की माया, किरन-कली की क्रीड़ा से ,
चिर-प्रवास में चले गये वे आने को कह कर छल से!

68 / कामायनी