पृष्ठ:कामायनी.djvu/८२

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लुटरी खुली अलक, रज-धूसर बाँहें आकर लिपट गयीं ,
निशा-ताप की जलने को धधक उठी बुझती धूनी !

"कहाँ रहा नटखट तू फिरता अब तक मेरा भाग्य बना !
अरे पिता के प्रतिनिधि : तूने भी सुख-दुःख तो दिया घना ,
चंचल तू, बनचर-मृग बन कर भरता है चौकड़ी कहीं
मैं डरती तू रूठ न जाये करती कैसे तुझे मना !"

"मैं रूठूं माँ और मना तू, कितनी अच्छी बात कही !
ले मैं सोता हूं अब जाकर, बोलूंगा मैं आज नहीं ,
पके फलों से पेट भरा है नींद नहीं खुलने वाली ।"
श्रद्धा चुंबन ले प्रसन्न कुछ-कुछ विषाद से भरी रही ।

जल उठते हैं लघु जीवन के मधुर-मधुर वे पल हलके ,
मुफ्त उदास गगन के उर में छाले बन कर जा झलके ।
दिवा-श्रांत-आलोक-रश्मियाँ नील-निलय में छिपीं कहीं ,
करुण वही स्वर फिर उस संसृति में बह जाता है गल के ।

प्रणय किरण का कोमल बंधन मुक्ति बना बढ़ता जाता ,
दूर, किंतु कितना प्रतिपल वह हृदय समीप हुआ जाता ।
मधुर चाँदनी-सी तंद्रा जब फैली मूर्च्छित मानस पर
तब अभिन्न प्रेमास्पद उसमें अपना चित्र बना जाता ।

कामायनी सकल अपना सुख स्वप्न बना-सा देख रही ,
युग-युग की वह विकल प्रतारित मिटी हुई बन लेख रही-
जो कुसूमों के कोमल दल से कभी पवन पर अंकित था,
आज पपीहा की पुकार बन –नभ में खिंचती रेख रही ।

70 / कामायनी