पृष्ठ:कामायनी.djvu/८३

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इड़ा अग्नि-ज्वाला-सी आगे जलती है उल्लास भरी ,
मनु का पथ आलोकित करती विपद-नदी में बनी तरी ,
उन्नति का आरोहण, महिमा शैल-श्रृंग सी श्रांति नहीं ,
तीव्र प्रेरणा की धारा सी bही वहाँ उत्साह भरी ।

वह सुन्दर आलोक किरन सी हृदय भेदिनी दृष्टि लिये ,
जिधर देखती--खुल जाते हैं तम ने जो पथ बंद किये।
मनु की सतत सफलता की वह उदय विजयिनी तारा थी ;
आश्रय की भूखी जनता ने निज श्रम के उपहार दिये !

मनु का नगर बसा है सुन्दर सहयोगी हैं सभी बने ,
दृढ़ प्राचीरों में मन्दिर के द्वार दिखाई पड़े घने ,
वर्षा धूप शिशिर में छाया के साधन संपन्न हुए ,
खेतों में हैं कृषक चलाते हल प्रमुदित श्रम-स्वेद सने।

उधर धातु गलते बनते हैं आभूषण औ' अस्त्र नये ,
कहीं साहसी ले आते हैं मृगया के उपहार नये ,
पुष्पलावियाँ चुनती हैं वन-कुसुमों की अध-विकच कली ,
गंध चूर्ण था लोध्र कुसुम रज, जुटे नवीन प्रसाधन ये ।

घन के आघातों से होती जो प्रचंड ध्वनि रोष भरी ,
तो रमणी के मधुर कंठ से हृदय मूर्च्छना उधर ढरी ,
अपने वर्ग बना कर श्रम का करते सभी उपाय वहाँ ,
उनकी मिलित-प्रयत्न-प्रथा से पुर की श्री दिखती निखरी।

देश काल का लाघव करते वे प्राणी चंचल से हैं ,
सुख-साधन एकत्र कर रहे जो उनके संबल में हैं ,

कामायनी / 71