मैं नियमन के लिए बुद्धि - बल से प्रयत्न कर ,
इनको कर एकत्र, चलाता नियम बना कर ।
किंतु स्वयं भी क्या वह सब कुछ मान चलूँ मैं ,
तनिक न मैं स्वच्छंद, स्वर्ण सा सदा गलू मैं !
जो मेरी है सृष्टि उसी से भीत हूँ मैं ,
क्या अधिकार नहीं कि कभी अविनीत रहूँ मैं ?
श्रद्धा का अधिकार समर्पण दे न सका मैं ,
प्रतिपल बढ़ता हुआ भला कब वहाँ रुका मैं .
इड़ा नियम - परतंत्र चाहती मुझे बनाना,
निर्वाचित अधिकार उसी ने एक न माना।
विश्व एक बंधन विहीन परिवर्त्तन तो है ,
इसकी गति में रवि-शशि-तारे ये सब जो हैं ।
रूप बदलते रहते वसुधा जलनिधि बनती ,
उदधि बना मरुभूमि जलषि में ज्वाला जलती !
तरल अग्नि की दौड़ लगी है सब के भीतर ,
गल कर बहते हिम-नग सरिता-लीला रच कर।
यह स्फुलिग का नृत्य एक पल आया बीता !
टिकने को कब मिला किसी को यहाँ सुभीता ?
कोटि-कोटि नक्षत्र शून्य के महा-विवर में ,
लास रास कर रहे लटकते हुए अधर में ।
उठती हैं पवनों के स्तर में लहरें कितनी ,
यह असंख्य चीत्कार और परवशता इतनी।
कामायनी / 77