पृष्ठ:कामायनी.djvu/८८

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संघर्ष

श्रद्धा का था स्वप्न किंतु वह सत्य बना था ,
इड़ा सकुचित उधर प्रजा में क्षोभ घना था ।
भौतिक-विप्लव देख विकल वे थे घबराये ,
राज-शरण में त्राण प्राप्त करने को आये ।

किंतु मिला अपमान और व्यवहार बुरा था ,
मनस्ताप से सब के भीतर रोष भरा था ।
क्षुब्ध निरखते वदन इड़ा का पीला-पीला ,
उधर प्रकृति की रुकी नहीं थी तांडव-लीला।

प्रांगण में थी भीड़ बढ़ रही सब जुड़ आये ,
प्रहरी-गण कर द्वार बंद थे ध्यान लगाये ।
रात्रि घनी-कालिमा-पटी में दबी-लुकी-सी ,
रह-रह होती प्रगट मेघ की ज्योति झुकी सी ।

मनु चिंतित से पड़े शयन पर सोच रहे थे ,
क्रोध और शंका के श्वापद नोच रहे थे ।
"मैं यह प्रजा बना कर कितना तुष्ट हुआ था ।
किंतु कौन कह सकता इन पर रुष्ट हुआ था ।

कितने जव से भर कर इनका चक्र चलाया ,
अलग-अलग ये एक हुई पर इनकी छाया ।

76 / कामायनी