पृष्ठ:कामायनी.djvu/९१

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मन में, यह सब आज हुआ है जो कुछ इतना !
क्या न हुई है तुष्टि ? बच रहा है अब कितना ?"

"मनु, सब शासन स्वत्व तुम्हारा सतत निबाहें ,
तुष्टि, चेतना का क्षण अपना अन्य न चाहें !
आह प्रजापति यह न हुआ है, कभी न होगा ,
निर्वाधित अधिकार आज तक किसने भोगा ?"

यह मनुष्य आकार चेतना का है विकसित ,
एक विश्व अपने आवरणों में है निर्मित
चिति-केंद्रों में जो संघर्ष चला करता है ,
द्वयता का जो भाव सदा मन में भरता है--

वे विस्मृत पहचान रहे से एक-एक को
होते सतत समीप मिलाते हैं अनेक को ।
स्पर्धा में जो उत्तम ठहरें वे रह जावें ,
संस्कृति का कल्याण करें शुभ मार्ग बतावें ।

व्यक्ति चेतना इसीलिए परतंत्र बनी-सी ,
रागपूर्ण, पर द्वेष-पंक में सतत सनी सी ।
नियत मार्ग में पद-पद पर है ठोकर खाती ,
अपने लक्ष्य समीप श्रांत हो चलती जाती ।

यह जीवन उपयोगी, यही है बुद्धि-साधना
अपना जिसमें श्रेय यही सुख की अराधना
लोक सुखी हो आश्रय ले यदि उस छाया में ,
प्राण सदृश तो रमो राष्ट्र की इस काया में ।

देश कल्पना काल परिधि में होती लय है ,
काल खोजता महाचेतना में निज क्षय है,

कामायनी / 79