भाव कितने पवित्र थे। कितने ऊँचे! आप प्रजा पर अपने को अर्पण कर देना चाहते थे। आप कहते थे, मैं प्रजा को अपने पास बेरोक-टोक आने दूँगा, उनके लिए मेरे द्वार हरदम खुले रहेंगे। आप कहते थे, मेरे कर्मचारी उनकी ओर टेढ़ी निगाह से भी देखेंगे, तो उनकी शामत आ जायगी। वे सारी बातें क्या आपको भूल गयीं? और इतनी जल्द? अभी तो बहुत दिन नहीं गुजरे। अब आप कहते हैं, प्रजा मेरे पैरों को धूल है। ईश्वर आपको सुबुद्धि दे।
राजा साहब कहाँ तो क्रोध से उन्मत्त हो रहे थे, कहाँ यह लगती हुई बात सुनकर रो पड़े। क्रोध निरुत्तर होकर पानी हो जाता है। या यों कहिए कि आँसू अव्यक्त भावों ही का रूप है। ग्लानि थी या पश्चात्ताप, अपनी दुर्बलता का दुःख था या विवशता का; या इस बात का रंज था कि यह दुष्ट मेरा इतना अपमान कर रहा है और मै कुछ नहीं कर सकता—इसका निर्णय करना कठिन है।
मगर एक ही क्षण में राजा साहब सचेत हो गये। प्रभुता ने आँसुओं को दबा दिया। अकड़कर बोले—मैं कहता हूँ, यहाँ से चले जाओ!
हरिसेवक—आपको शर्म नहीं पाती कि किससे ऐसी बातें कर रहे हैं।
वज्रधर—बेटा, क्यों मेरे मुँह में कालिख लगा रहे हो?
चक्रधर—जब तक आप इन आदमियों को जाने न देंगे, मैं नहीं जा सकता।
राजा—मेरे आदमियों से तुम्हें कोई सरोकार नहीं है। उनमें से अगर एक भी हिला, तो उसकी लाश जमीन पर होगी।
चक्रधर—तो मेरे लिए इसके सिवा और कोई उपाय नहीं है कि उन्हें यहाँ से हटा ले जाऊँ।
यह कहकर चक्रधर मजदूरों की ओर चले। राजा साहब जानते थे कि इनका इशारा पाते ही सारे मजदूर हवा हो जायँगे, फिर सशस्त्र सेना भी उन्हें न रोक सकेगी। तिलमिलाकर बन्दूक लिये हुए चक्रधर के पीछे दोड़े और ऐसे जोर से उन पर कुन्दा चलाया कि सिर पर लगता तो शायद वहीं ठण्डे हो जाते। मगर कुशल हुई। कुन्दा पीठे में लगा और उसके झोंके से चक्रधर कई हाथ पर जा गिरे। उनका जमीन पर गिरना था कि पाँच हजार आदमी बाड़े को तोड़ कर, सशस्त्र सिपाहियों को चीरते, बाहर निकल आये और नरेशों के कैम्प की ओर चले। रास्ते में जो कर्मचारी मिला, उसे पीटा। मालूम होता था, कैम्प में लूट मच गयी है। दूकानदार अपनी दूकानें समेटने लगे। दर्शकगण अपनी धोतियाँ सँभालकर भागने लगे। चारों तरफ भगदड़ पड़ गयी। जितने बेफ्रिके, शोहदे, लुच्चे तमाशा देखने आये थे, वे सब उपद्रवकारियों में मिल गये। यहाँ तक कि नरेशों के कैम्प तक पहुँचते पहुँचते उनकी संख्या दूनी हो गयी।
राजा-रईस अपनी वासनाओं के सिवा और किसी के गुलाम नहीं होते। वक्त की गुलामी भी उन्हें पसन्द नहीं। वे किसी नियम को अपनी स्वेच्छा में बाधा नहीं डालने देते। फिर उनको इसकी क्या परवा कि सुबह है या शाम। कोई मीठी नींद के मजे