सामग्री पर जाएँ

पृष्ठ:कायाकल्प.djvu/१०३

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
११४
[कायाकल्प
 

लेता था, कोई गाना सुनता था, कोई स्नान-ध्यान में मग्न था और लोग तिलक मंडप जाने की तैयारियाँ कर रहे थे। कहीं भंग घुटती थी, कही कवित्त चर्चा हो रही थी और वहीं नाच हो रहा था। कोई नाश्ता कर रहा था और कोई लेटा नौकरों से चम्पी करा रहा था। उत्तरदायित्वहीन स्वतन्त्रता अपनी विविध लीलाएँ दिखा रही थी। अगर उपद्रवी इस कैम्म में पहुँच जाते, तो महाअनर्थ हो जाता। न जाने कितने राजवंशो का अन्त हो जाता, किन्तु राजाओं की रक्षा उनका इकबाल करता है। अँगरेजी कैम्प में १०-१२ आदमी अभी शिकार खेलकर लौटे थे। उन्होंने जो यह हंगामा सुना, तो बाहर निकल आये और जनता पर अन्धाधुन्ध बन्दूकें छोड़ने लगे। पहले तो उत्तेजित जनता ने बन्दूकों की परवा न की, उसे अपनी संख्या का बल था। लोग सोचते थे, मरते मरते हममें से इतने आदमी कैम्प में पहुँच जायँगे कि नरेशों को कहीं भागने की भी जगह न मिलेगी। हम सारे प्रान्त को इन अत्याचारियों से मुक्त कर देंगे। ये सब भी तो अपनी प्रजा पर ऐसा ही अत्याचार करते होंगे।

जनता उत्तेजित होकर आदर्शवादी हो जाती है।

गोलियों की पहली बाढ़ आयी। कई आदमी गिर गये।

चौधरी—देखो भाई, घबराना नही। जो गिरता है, उसे गिरने दो, आज ही तो दिल के हौसले निकले हैं। जय हनुमानजी को।

एक मजदूर—ढ़ेढे आओ, चढ़े आओ, अब मार लिया है। आज ही तो

उसके मुँह से पूरी बात भी न निकलने पायी थी कि गोलियों की दूसरी बाढ़ आयी और कई आदमियों के साथ दोनों नेताओं का काम तमाम कर गयी। एक क्षण के लिए सबके पैर रुक गये। जो जहाँ था, वहीं खड़ा रह गया। समस्या थी कि आगे जायँ या पीछे? सहसा एक युवक ने कहा—मारो, रुक क्यों गये? सामने पहुँचकर हिम्मत छोड़ देते हो। बढ़े चलो। जय दुर्गामाई की।

दूसरा बोला—आज जो मरेगा, वह बैकुण्ठ में जायगा। बोलो हनुमानजी की जय।

उसे भी गोली लगी और चक्कर खाकर गिर पड़ा।

इतने में दीवान साहब बन्दूक लिये पीछे से दौड़ते हुए आ पहुँचे। गुरुसेवक भी उनके साथ थे। दोनों एक दूसरे रास्ते से कैम्प के द्वार पर पहुँच गये थे।

हरिसेवक—तुम मेरे पीछे खड़े हो जाओ और यहीं से निशाना लगाओ।

गुरुसेवक—अभी फैर न कीजिए। मैं जरा इन्हें समझा लूँ। समझाने से काम निकल जाय, तो रक्त क्यों बहाया जाय?

हरिसेवक—अब समझाने का मौका नहीं है। अभी दम के दम में सब के सब अन्दर घुस आयेंगे, तो प्रलय हो जायगी।

किन्तु गुरुसेवक के हृदय में दया थी। पिता की बात न मानकर वह सामने आ गये और ललकारकर बोले—तुम लोग यहाँ क्यों आ रहे हो? यह न समझो कि तुम