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कायाकल्प
 

चक्रधर कुछ न कह सके । लौटे, तो मुँह पर घोर निराशा छायी हुई थी। आज दादाजी शायद जीता न छोड़ेंगे। इस ख्याल से उनका दिल काँपने लगा। मनोरमा ने उनका पुरजा अपने पिता के पास ले जाते हुए राह में पढ़ लिया था। उन्हें उदास देखकर पूछा-दादाजी ने आपसे क्या कहा !

चक्रधर उसके सामने रुपये पैसे का जिक्र न करना चाहते थे । झेंपते हुए बोले- कुछ तो नहीं ।

मनोरमा-आपको रुपए नहीं दिये ?

चक्रधर का मुंह लाल हो गया। बोले-मिल जायँगे ।

मनोरमा-आपको १२०) चाहिए न ?

चक्रधर-इस वक्त कोई ऐसी जरूरत नहीं है ।

मनोरमा-जरूरत न होती तो श्राप मांगते ही न । दादाजी से बड़ा ऐब है कि 'किसी के रुपये देते हुए उन्हें मोह लगता है। देखिए, मैं जाकर'

चक्रधर ने रोककर कहा-नहीं नहीं, कोई जरूरत नहीं।

मनोरमा ने न माना | तुरन्त घर मे गई और एक क्षण में पूरे रुपये लाकर मेज पर रख दिये, मानो कहीं गिने गिनाये रक्खे हुए थे।

चक्रधर-तुमने ठाकुर साहब को व्यर्थ कष्ट दिया ।

मनोरमा-मेने उन्हें कष्ट नहीं दिया। उनसे तो कहा भी नहीं। दादाजी किसी की जरूरत नहीं समझते। अगर अपने लिए कभी मोटर मॅगपानी हो तो तुरत मंगवा लेंगे, पहाड़ों पर जाना हो, तो तुरन्त चले जायेंगे, पर जिसके रुपए पाते हैं, उसको न देंगे।

वह तो पढने बैठ गयी, लेकिन चक्रधर के सामने यह समस्या पड़ी कि रुपए लुंँ, या न लुँ। उन्होंने निश्चय किया कि न लेना चाहिए । पाठ हो चुकने पर यह उठ खड़े हुए और बिना रुपये लिये बाहर निकल आये । मनोरमा रुपये लिये हुए पीछे पीछे बरामदे तक आयी । बार-बार कहती रही- इसे आप लेते जाइए, जब दादाजा दें, तो मुझे लौटा दीजिएगा। पर चक्रधर ने एक न सुनी और जल्दी से बाहर निकल गये।


चक्रघर डरते हुए घर पहुंचे, तो क्या देखते हैं कि द्वार पर चारपाई पड़ी हुई है; उसपर कालीन विछी हुई है और एक अधेड़ उम्र के महाशय उसपर बैठे हुए है। उनके सामने हो एक कुरसी पर मुशी वज्रधर बैठे फर्शी पी रहे थे और नाई खड़ा पंखा झल रहा था । चक्रधर के प्राण सूख गये । अनुमान से ताड़ गये कि यह महाशय वर की खोज में आये हैं । निश्चय करने के लिए घर में जाकर माता से पूछा, तो अनुमान सच्चा निकला | वोले-दादाजी ने इनसे क्या कहा ?

निर्मला ने मुस्कराकर कहा-नानी क्यों मरी जाती है, क्या जन्म भर क्वारे ही‌